कबीर के दोहे: अर्थ, प्रेरणा और जीवन के गहरे सबक | Kabir Ke Dohe with Meaning in Hindi & Hinglish- पढ़ें संत कबीर के अमर दोहे, उनके सरल शब्दों में छिपे गहरे अर्थ और जीवन को बदल देने वाली शिक्षाएं। ये दोहे आपको प्रेरणा देंगे और आत्म-चिंतन का रास्ता दिखाएंगे। Kabir ke dohe with easy explanations in Hindi aur Hinglish, jo aapke dil aur dimag ko chhoo lenge! Explore now for spiritual wisdom aur practical life lessons!
कबीर
के दोहे: अर्थ और जीवन की सीख (Kabir Ke Dohe
with Meaning in Hindi)
Sant Kabir ke
dohe aaj bhi dil ko chhoo jate hain! Unke dohe sirf shabd nahi, balki jeevan ke
gehre sabak hain jo prem, sachaai aur adhyatm ki baat karte hain. Is article
mein padhiye Kabir ke dohe Hindi mein, unka simple arth, aur kaise yeh humein
inspire karte hain. Explore karein Kabir ke dohon ka treasure aur apne jeevan
mein laayein positive change! #KabirKeDohe #HindiPoetry #LifeLessons
संत
कबीर के दोहे आज भी दिल को छू जाते हैं! उनके दोहे सिर्फ शब्द नहीं,
बालक जीवन के गहरे सबक हैं जो प्रेम, सच्चाई
और अध्यात्म की बात करते हैं। क्या लेख में पढ़िए कबीर के दोहे हिंदी में, उनका सरल अर्थ, और कैसे ये हमें प्रेरित करते हैं।
खोजें करें कबीर के दोनों का खजाना और अपने जीवन में लाएं सकारात्मक बदलाव!
"कबीर के दोहे: अर्थ, प्रेरणा और जीवन के सबक"
कबीर के दोहे: अर्थ, प्रेरणा और जीवन के सबक (Kabir Ke Dohe with Meaning in Hindi)
"कबीर के दोहे (Kabir Ke Dohe) पढ़ें और उनके गहरे अर्थ, प्रेरणा और जीवन के सबक को समझें। यहाँ सरल हिंदी में 20+ प्रसिद्ध दोहे और उनके अर्थ दिए गए हैं।"
कबीर दास जी का परिचय और उनके दोहों का महत्व
संत कबीर दास, 15वीं सदी के महान कवि और समाज सुधारक, अपने दोहों के माध्यम से जीवन की गहरी सच्चाइयों को सरल शब्दों में व्यक्त करते हैं। उनके दोहे न केवल आध्यात्मिकता और भक्ति का संदेश देते हैं, बल्कि नैतिकता, प्रेम, और सामाजिक समरसता की शिक्षा भी प्रदान करते हैं। इस लेख में, हम कबीर के कुछ प्रसिद्ध दोहों का अर्थ, प्रेरणा, और उनके जीवन पर प्रभाव को समझेंगे।
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कबीर के प्रसिद्ध दोहे और उनके अर्थ
दोहा 1
दोहा:
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिल्या कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि जब मैं दूसरों में बुराई ढूंढने निकला, तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला। लेकिन जब मैंने अपने मन की जांच की, तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा आत्म-निरीक्षण की शक्ति को दर्शाता है। दूसरों की कमियां गिनाने से पहले, हमें अपने अंदर झांकना चाहिए। यह हमें विनम्रता और आत्म-सुधार की प्रेरणा देता है।
दोहा 2
दोहा:
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
दो अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि किताबें पढ़-पढ़कर संसार मर गया, पर कोई सच्चा पंडित नहीं बना। जो प्रेम के दो अक्षरों को समझ ले, वही सच्चा पंडित है।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा प्रेम और करुणा की महत्ता को रेखांकित करता है। सच्चा ज्ञान किताबों से नहीं, बल्कि प्रेम और मानवता से प्राप्त होता है।
दोहा 3
दोहा:
कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढे बन माहि।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाही।
अर्थ:
जैसे मृग अपनी नाभि में कस्तूरी की सुगंध ढूंढता है, वहीँ ईश्वर हर हृदय में निवास करता है, पर लोग उसे बाहर खोजते हैं।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा हमें सिखाता है कि ईश्वर बाहर मंदिरों या तीर्थों में नहीं, बल्कि हमारे भीतर है। आत्म-चिंतन और ध्यान से हम उसे पा सकते हैं।
दोहा 4
दोहा:
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि साधु की जाति नहीं, उसके ज्ञान को पूछो। तलवार का मूल्य उसके धार से होता है, म्यान से नहीं।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा सामाजिक भेदभाव के खिलाफ है। व्यक्ति का मूल्य उसकी जाति या बाहरी आवरण से नहीं, बल्कि उसके गुणों और ज्ञान से होता है।
दोहा 5
दोहा:
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि जो काम कल करना है, उसे आज करो, और जो आज करना है, उसे अभी। क्योंकि जीवन अनिश्चित है, और पल में सब कुछ बदल सकता है।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा समय के महत्व और तत्काल कार्य करने की प्रेरणा देता है। हमें अपने लक्ष्यों को टालना नहीं चाहिए।
कबीर के दोहों का जीवन में महत्वकबीर के दोहे आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि वे जीवन के हर पहलू—आध्यात्मिकता, नैतिकता, सामाजिक सुधार, और प्रेम—को छूते हैं। ये दोहे हमें सादगी, सच्चाई, और आत्म-जागरूकता की ओर ले जाते हैं।
कबीर के दोहों का आध्यात्मिक और सामाजिक प्रभाव
कबीर ने अपने दोहों के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों, जैसे जातिवाद, अंधविश्वास, और पाखंड को उजागर किया। उनके दोहे भक्ति आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा बने।
"भक्ति आंदोलन," "सामाजिक सुधार," "कबीर की शिक्षाएं." कबीर के दोहों से संबंधित सामान्य प्रश्न
- प्रश्न: कबीर दास कौन थे?
उत्तर: कबीर दास 15वीं सदी के भक्ति कवि और समाज सुधारक थे, जिन्होंने अपने दोहों के माध्यम से आध्यात्मिकता और नैतिकता की शिक्षा दी। - प्रश्न: कबीर के दोहों की मुख्य शिक्षाएं क्या हैं?
उत्तर: उनके दोहे प्रेम, सादगी, आत्म-निरीक्षण, और सामाजिक समरसता पर जोर देते हैं। - "कबीर दास कौन थे," "कबीर के दोहों का महत्व." "पढ़ें कबीर के दोहे और उनके गहरे अर्थ!
कबीर के दोहे: अर्थ, प्रेरणा और जीवन के सबक
संत कबीर दास के दोहे आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करते हैं। उनके दोहे सरल शब्दों में गहरे जीवन दर्शन को समेटे हुए हैं। इस लेख में, हम उनके कुछ चुनिंदा दोहों का अर्थ और प्रेरणा देखेंगे।
कबीर के दोहों का महत्व
कबीर के दोहे हमें सिखाते हैं कि सच्चाई, प्रेम, और सादगी ही जीवन का आधार हैं।
कबीर के दोहे न केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन देते हैं, बल्कि हमें बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा भी देते हैं। अपने पसंदीदा दोहे को कमेंट में साझा करें!
"कबीर के दोहे (Kabir Ke Dohe) पढ़ें और उनके गहरे अर्थ, प्रेरणा और जीवन के सबक को समझें। 25+ प्रसिद्ध दोहे हिंदी में अर्थ सहित, आध्यात्मिकता और नैतिकता की सीख के साथ।" दोहा 6दोहा:
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि लेई, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि साधु का स्वभाव सूप (सुपड़ा) जैसा होना चाहिए, जो अनाज को छानकर अच्छे दानों को रख लेता है और कचरे को उड़ा देता है।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा हमें सिखाता है कि हमें जीवन में अच्छे गुणों को अपनाना चाहिए और नकारात्मकता को त्याग देना चाहिए। एक सच्चा साधु या व्यक्ति वही है जो अच्छाई को ग्रहण करता है और बुराई को छोड़ देता है।
दोहा 7
दोहा:
माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि न तो माया मरती है और न ही मन की इच्छाएं। शरीर बार-बार मरता है, लेकिन आशा और लालसा कभी नहीं मरती।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा मानव की लालसा और माया के प्रति आसक्ति को दर्शाता है। हमें इच्छाओं को नियंत्रित करने और आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है।
दोहा 8
दोहा:
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि हे मन, धीरे-धीरे सब कुछ होगा। जैसे माली सौ घड़े पानी डाले, फल तभी मिलता है जब उसका समय आता है।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा धैर्य और निरंतर प्रयास की महत्ता सिखाता है। सफलता समय और मेहनत का फल है, जल्दबाजी से कुछ हासिल नहीं होता।
दोहा 9
दोहा:
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि जब गुरु और गोविंद (ईश्वर) दोनों सामने खड़े हों, तो पहले गुरु के चरणों में प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि गुरु ने ही ईश्वर का मार्ग दिखाया।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा गुरु के महत्व को रेखांकित करता है। गुरु वह मार्गदर्शक है जो हमें सत्य और ईश्वर तक ले जाता है।
दोहा 10
दोहा:
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।
सब अंधियारा मिट गया, दीपक देखा माहि।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि जब मैं अपने अहंकार में डूबा था, तब ईश्वर को नहीं देख सका। अब जब ईश्वर का प्रकाश मिला, तो मेरा अहंकार मिट गया।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा अहंकार को त्यागने और ईश्वर के प्रति समर्पण की शिक्षा देता है। सच्ची भक्ति में अहंकार का कोई स्थान नहीं। "अहंकार त्याग," "कबीर के भक्ति दोहे," "आध्यात्मिकता."
कबीर के दोहों की प्रासंगिकता आज के युग मेंकबीर के दोहे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे। चाहे वह सामाजिक सुधार हो, आत्म-जागरूकता हो, या आध्यात्मिक मार्ग, कबीर की शिक्षाएं हर युग में लागू होती हैं। उदाहरण के लिए, उनका दोहा "जाति न पूछो साधु की" आज के समय में जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ एक मजबूत संदेश देता है। इसी तरह, "धीरे-धीरे रे मना" हमें तेजी से भागती दुनिया में धैर्य रखने की सीख देता है।
"कबीर के दोहों की प्रासंगिकता," "आधुनिक युग में कबीर," "सामाजिक सुधार."कबीर के दोहों का प्रभाव और उनकी लोकप्रियताकबीर के दोहे भक्ति आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे और आज भी साहित्य, संगीत, और आध्यात्मिक चर्चाओं में लोकप्रिय हैं। उनके दोहे स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं, और विभिन्न मंचों पर जैसे X पर लोग इन्हें साझा करते हैं। उदाहरण के लिए, X पर #KabirKeDohe हैशटैग के तहत लोग उनके दोहों को अर्थ सहित शेयर करते हैं, जिससे उनकी पहुंच और बढ़ती है।
कबीर के दोहों को कैसे अपनाएं?
- आत्म-निरीक्षण: "बुरा जो देखन मैं चला" की सीख को अपनाकर रोज अपने कार्यों और विचारों की समीक्षा करें।
- प्रेम और करुणा: "पोथी पढ़ि पढ़ि" दोहे से प्रेरित होकर दूसरों के प्रति प्रेम और सहानुभूति बढ़ाएं।
- धैर्य: "धीरे-धीरे रे मना" को याद रखकर जीवन में जल्दबाजी से बचें।
- सामाजिक समरसता: "जाति न पूछो साधु की" की सीख को अपनाकर भेदभाव से मुक्त रहें।
"कबीर के दोहे का अर्थ क्या है?"
"कबीर का सबसे प्रसिद्ध दोहा कौन सा है?"
"कबीर के दोहे वीडियो."
"कबीर के दोहे हिंदी में उत्तर प्रदेश."
कबीर के दोहों से संबंधित सामान्य प्रश्न
- प्रश्न: कबीर के दोहों का मुख्य संदेश क्या है?
उत्तर: कबीर के दोहे प्रेम, सादगी, आत्म-जागरूकता, और सामाजिक समरसता का संदेश देते हैं। - प्रश्न: कबीर के दोहे आज क्यों प्रासंगिक हैं?
उत्तर: उनके दोहे नैतिकता, धैर्य, और भक्ति जैसे शाश्वत मूल्यों को दर्शाते हैं, जो हर युग में लागू होते हैं। - प्रश्न: कबीर के दोहों को कहाँ पढ़ सकते हैं?
उत्तर: कबीर के दोहे किताबों, ऑनलाइन ब्लॉग्स, और X जैसे प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध हैं।
"कबीर के इन दोहों ने आपको क्या सिखाया?
"कबीर के दोहे (Kabir Ke Dohe) हिंदी में अर्थ सहित! प्रसिद्ध दोहों के गहरे अर्थ, प्रेरणा और जीवन के सबक पढ़ें। आध्यात्मिकता, नैतिकता और सामाजिक सुधार की सीख।" कबीर के और अधिक प्रेरणादायक दोहे और उनके अर्थ
दोहा 11
दोहा:
साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।
अर्थ:
कबीर प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि इतना धन दें कि परिवार का पालन-पोषण हो सके, मैं भूखा न रहूं, और कोई साधु या जरूरतमंद मेरे द्वार से भूखा न लौटे।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा संतोष और दान की भावना को दर्शाता है। कबीर सिखाते हैं कि हमें अपनी जरूरतों को सीमित रखकर दूसरों की मदद करनी चाहिए। यह सादगी और परोपकार की प्रेरणा देता है।
"संतोष का महत्व," "कबीर के नैतिक दोहे," "परोपकार की सीख."
दोहा 12
दोहा:
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि चक्की के दो पाटों को देखकर मैं रो पड़ा, क्योंकि उनके बीच में कोई भी साबुत नहीं बचता। यह जीवन और मृत्यु के चक्र का प्रतीक है।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा जीवन की नश्वरता को दर्शाता है। हमें सांसारिक मोह को छोड़कर आध्यात्मिक मार्ग पर चलना चाहिए, क्योंकि जीवन क्षणभंगुर है।
"जीवन की नश्वरता," "कबीर के आध्यात्मिक दोहे," "मोह का त्याग."
दोहा 13
दोहा:
बाहर क्या ढूंढे रे, भीतर राम बसे।
नैना अंतर आव तु, ज्योति सरूपी देख।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि बाहर भटकने की क्या जरूरत है, जब राम (ईश्वर) तुम्हारे हृदय में बसे हैं। अपनी आंखें बंद कर और अंतर्मन में ईश्वर के ज्योति स्वरूप को देख।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा आत्म-चिंतन और ध्यान की महत्ता को रेखांकित करता है। सच्चा ईश्वर बाहर नहीं, हमारे भीतर है, जिसे ध्यान और भक्ति से पाया जा सकता है।
"आत्म-चिंतन," "कबीर के भक्ति दोहे," "ईश्वर की खोज."
दोहा 14
दोहा:
जो सुख पावे हरि भजन, सो सुख नाही और।
सब सुख रंक बराबर, जैसे मरघट की ठौर।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि जो सुख ईश्वर की भक्ति में मिलता है, वह किसी और सुख में नहीं। बाकी सारे सुख नगण्य हैं, जैसे श्मशान की जगह।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा भक्ति के सच्चे सुख को दर्शाता है। सांसारिक सुख क्षणिक हैं, जबकि भक्ति का सुख शाश्वत है। यह हमें भौतिकता से हटकर आध्यात्मिकता अपनाने की प्रेरणा देता है।
"भक्ति का सुख," "कबीर के आध्यात्मिक दोहे," "सांसारिक सुख."
दोहा 15
दोहा:
प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जेहि रुचे, सिर दे प्रेम पाय।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि प्रेम न तो खेत में उगता है और न ही बाजार में बिकता है। जो राजा हो या प्रजा, उसे प्रेम पाने के लिए अपना सिर (अहंकार) देना पड़ता है।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा सच्चे प्रेम की कीमत को दर्शाता है। प्रेम तभी मिलता है जब हम अहंकार और स्वार्थ को त्याग देते हैं। यह हमें निस्वार्थ प्रेम की प्रेरणा देता है।
"सच्चा प्रेम," "कबीर के प्रेम दोहे," "अहंकार का त्याग."
कबीर के दोहों का दैनिक जीवन में उपयोगकबीर के दोहे न केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन देते हैं, बल्कि दैनिक जीवन में भी उपयोगी हैं। उदाहरण के लिए:
- कार्यस्थल पर: "धीरे-धीरे रे मना" की सीख धैर्य और मेहनत को प्रोत्साहित करती है।
- पारिवारिक जीवन में: "साईं इतना दीजिए" हमें संतोष और उदारता सिखाता है।
- सामाजिक जीवन में: "जाति न पूछो साधु की" हमें भेदभाव से मुक्त रहने की प्रेरणा देता है।
कबीर के दोहों का सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रभावकबीर के दोहे हिंदी साहित्य और भक्ति आंदोलन का अभिन्न अंग हैं। उनकी रचनाएं न केवल भारत में, बल्कि विश्व स्तर पर भी पढ़ी और सराही जाती हैं। Social प्लेटफॉर्म पर #KabirKeDohe और #HindiPoetry ट्रेंड्स में उनके दोहे अक्सर साझा किए जाते हैं, जिससे उनकी लोकप्रियता और बढ़ती है। "कबीर के दोहों का साहित्यिक प्रभाव," "भक्ति साहित्य."
कबीर के दोहों को सोशल मीडिया पर कैसे साझा करें?
कबीर के दोहे: अर्थ, प्रेरणा और जीवन के सबक
"कबीर के दोहे (Kabir Ke Dohe) हिंदी में अर्थ सहित! प्रसिद्ध दोहों के गहरे अर्थ, प्रेरणा और जीवन के सबक। आध्यात्मिकता, नैतिकता और सामाजिक सुधार की सीख पढ़ें।"
कबीर के और अधिक प्रेरणादायक दोहे और उनके अर्थ
दोहा 16
दोहा:
रात गंवाई सोय के, दिन गंवाया खाय।
हीरा जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि रात सोने में और दिन खाने-पीने में बिता दिया। यह अनमोल मानव जन्म, जो हीरे के समान है, कोड़ियों के बदले गंवा दिया।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा हमें जीवन के मूल्य को समझाता है। हमें समय को व्यर्थ न गंवाकर आध्यात्मिक और सार्थक कार्यों में लगाना चाहिए। यह आत्म-जागरूकता और समय प्रबंधन की प्रेरणा देता है।
"जीवन का मूल्य," "कबीर के प्रेरणादायक दोहे," "समय प्रबंधन."
दोहा 17
दोहा:
संत न छाड़े संतई, जो कोटिक मिले असंत।
चंदन भवै बावला, पासे विष का कंत।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि सच्चा संत अपनी संतई (सज्जनता) कभी नहीं छोड़ता, भले ही उसे लाखों असंत (दुष्ट लोग) मिलें। जैसे चंदन का पेड़ विषैले सांप के पास रहकर भी अपनी सुगंध नहीं खोता।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा सिखाता है कि हमें अपने अच्छे गुणों को बनाए रखना चाहिए, चाहे परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों। यह नैतिक दृढ़ता और सकारात्मकता की प्रेरणा देता है।
"नैतिक दृढ़ता," "कबीर के नैतिक दोहे," "सकारात्मकता."
दोहा 18
दोहा:
तन बोले मन बोले, बोले नयन सुजान।
कबिरा प्रेम का मारगा, सदा रहो अभिमान।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि शरीर, मन, और बुद्धिमान आंखें बोलते हैं, लेकिन प्रेम का मार्ग वही है जो अभिमान (अहंकार) से मुक्त हो।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा सच्चे प्रेम में अहंकार के लिए कोई स्थान न होने की बात करता है। प्रेम और भक्ति में विनम्रता आवश्यक है। यह हमें नम्र और प्रेममय जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
"विनम्रता का महत्व," "कबीर के प्रेम दोहे," "भक्ति मार्ग."
दोहा 19
दोहा:
कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि मैं बाजार में खड़ा हूं और सभी की भलाई मांगता हूं। मैं न किसी से दोस्ती रखता हूं और न ही किसी से दुश्मनी।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा निष्पक्षता और सर्वभूत हित की भावना को दर्शाता है। हमें सभी के प्रति समान भाव रखना चाहिए, बिना पक्षपात या द्वेष के। यह सामाजिक सद्भाव की प्रेरणा देता है।
"सामाजिक सद्भाव," "कबीर के दोहे हिंदी में," "निष्पक्षता."
दोहा 20
दोहा:
जब तू आया जगत में, लोग हंसे तू रोय।
ऐसी करनी कर चलो, तुझको हंसे सब कोय।
अर्थ:
कबीर कहते हैं कि जब तू इस संसार में आया, तो लोग हंसे और तू रोया। ऐसी कर्म कर कि जब तू जाए, तो तू हंसे और सब रोएं।
प्रेरणा और सबक:
यह दोहा हमें अच्छे कर्म करने की प्रेरणा देता है, ताकि जीवन के अंत में हम संतुष्ट रहें और लोग हमारी कमी महसूस करें। यह सार्थक जीवन जीने का संदेश देता है।
"अच्छे कर्म," "कबीर के प्रेरणादायक दोहे," "सार्थक जीवन."
कबीर के दोहों का आधुनिक जीवन में प्रभावकबीर के दोहे आधुनिक जीवन में भी उतने ही प्रासंगिक हैं। उदाहरण के लिए:
- तनाव प्रबंधन: "धीरे-धीरे रे मना" हमें तनावपूर्ण जीवन में धैर्य सिखाता है।
- सामाजिक समरसता: "कबीरा खड़ा बाजार में" हमें निष्पक्ष और सर्वहितकारी बनने की प्रेरणा देता है।
- आत्म-विकास: "रात गंवाई सोय के" हमें समय का सदुपयोग करने और आत्म-जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है।
क्या आपने कभी संत कबीर के दोहे सुने हैं आप यहाँ कबीरदास के सभी दोहे सुन सकते हैं और पढ़ भी सकते हैं:
Video 1
Video 2
Video 3
Video 4
Video 5
Video 6
कबीर दास जी के कुछ प्रसिद्ध दोहे
"गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताय।"
इसके अलावा अन्य प्रेरणा दायक मुख्य दोहों का भंडार
"दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन
करे, तो दुख काहे को होय।"
और "माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।
कर का मनका छाड़ि के, मन का मनका फेर।"
संत कबीर दास के कुछ और प्रसिद्ध दोहे:
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।"
"धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।"
"कबीर घास न नींदिए, जो पाँवन तले होय। कबहुँ उड़ी
आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।"
"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय।"
"साईं इतना दीजिए, जा में कुटुम्ब समाय। मैं भी भूखा
न रहूँ, साधु न भूखा जाय।"
कबीर के दोहे: अपने जीवन में उतारें
तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ ॥
अर्थ व्याख्या: जीवात्मा कह रही है कि ‘तू है’ ‘तू है’ कहते−कहते मेरा अहंकार समाप्त हो गया। इस तरह
भगवान पर न्यौछावर होते−होते मैं पूर्णतया समर्पित हो गई। अब तो जिधर देखती हूँ
उधर तू ही दिखाई देता है।
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥
अर्थ व्याख्या: मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-संपत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है?
मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति।
कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥
अर्थ व्याख्या: मन के हारने से हार होती है, मन के जीतने से जीत होती है (मनोबल सदैव ऊँचा रखना चाहिए)। मन के गहन विश्वास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
प्रेमी
ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै न
कोइ।
प्रेमी
कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत
होइ॥
अर्थ व्याख्या:
परमात्मा के प्रेमी को मैं खोजता घूम रहा हूँ परंतु कोई भी प्रेमी नहीं मिलता है।
यदि ईश्वर-प्रेमी को दूसरा ईश्वर-प्रेमी मिल जाता है तो विषय-वासना रूपी विष अमृत
में परिणत हो जाता है।
साँच
बराबरि तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके
हिरदै साँच है ताकै हृदय आप॥
अर्थ व्याख्या:
सच्चाई के बराबर कोई तपस्या नहीं है, झूठ (मिथ्या आचरण) के बराबर कोई पाप कर्म नहीं है। जिसके हृदय में सच्चाई
है उसी के हृदय में भगवान निवास करते हैं।
जिस
मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद।
कब
मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥
अर्थ व्याख्या:
जिस मरण से संसार डरता है, वह मेरे लिए
आनंद है। कब मरूँगा और कब पूर्ण परमानंद स्वरूप ईश्वर का दर्शन करूँगा। देह त्याग
के बाद ही ईश्वर का साक्षात्कार होगा। घट का अंतराल हट जाएगा तो अंशी में अंश मिल
जाएगा।
कबीर
माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।
मुखि
कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥
अर्थ व्याख्या:
यह माया बड़ी पापिन है। यह प्राणियों को
परमात्मा से विमुख कर देती है तथा
उनके
मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती।
बेटा
जाए क्या हुआ, कहा बजावै थाल।
आवन
जावन ह्वै रहा, ज्यौं कीड़ी का नाल॥
अर्थ व्याख्या:
बेटा पैदा होने पर हे प्राणी थाली बजाकर इतनी प्रसन्नता क्यों प्रकट करते हो?
जीव तो चौरासी लाख योनियों में वैसे ही आता जाता रहता है जैसे जल से
युक्त नाले में कीड़े आते-जाते रहते हैं।
कबीर
कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।
गलै
राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ॥
अर्थ व्याख्या:
कबीर कहते हैं कि मैं तो राम का कुत्ता हूँ, और नाम मेरा मुतिया है। मेरे गले में राम की ज़ंजीर पड़ी हुई है, मैं उधर ही चला जाता हूँ जिधर वह ले जाता है। प्रेम के ऐसे बंधन में
मौज-ही-मौज है।
काबा
फिर कासी भया, राम भया रहीम।
मोट
चून मैदा भया, बैठ कबीर जीम॥
अर्थ व्याख्या:
सांप्रदायिक सद्भावना के कारण कबीर के लिए काबा काशी में परिणत हो गया। भेद का
मोटा चून या मोठ का चून अभेद का मैदा बन गया, कबीर उसी को जीम रहा है।
चाकी
चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ।
दोइ पट
भीतर आइकै, सालिम बचा न कोई॥
अर्थ व्याख्या:
काल की चक्की चलते देख कर कबीर को रुलाई आ जाती है। आकाश और धरती के दो पाटों के
बीच कोई भी सुरक्षित नहीं बचा है।
हम भी
पांहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुरु
की कृपा भई, डार्या सिर पैं बोझ॥
अर्थ व्याख्या:
कबीर कहते हैं कि यदि सद्गुरु की कृपा न हुई होती तो मैं भी पत्थर की पूजा करता और
जैसे जंगल में नील गाय भटकती है, वैसे ही
मैं व्यर्थ तीर्थों में भटकता फिरता। सद्गुरु की कृपा से ही मेरे सिर से आडंबरों
का बोझ उतर गया।
साँई
मेरा बाँणियाँ, सहजि करै व्यौपार।
बिन
डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥
अर्थ व्याख्या:
परमात्मा व्यापारी है, वह सहज ही
व्यापार करता है। वह बिना तराज़ू एवं बिना डाँड़ी पलड़े के ही सारे सांसार को
तौलता है। अर्थात् वह समस्त जीवों के कर्मों का माप करके उन्हें तदनुसार गति देता
है।
सब जग
सूता नींद भरि, संत न आवै नींद।
काल
खड़ा सिर ऊपरै, ज्यौं तौरणि आया बींद॥
अर्थ व्याख्या:
सारा संसार नींद में सो रहा है किंतु संत लोग जागृत हैं। उन्हें काल का भय नहीं है,
काल यद्यपि सिर के ऊपर खड़ा है किंतु संत को हर्ष है कि तोरण में
दूल्हा खड़ा है। वह शीघ्र जीवात्मा रूपी दुल्हन को उसके असली घर लेकर जाएगा।
कबीर
यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर
नाँहि।
सीस उतारै
हाथि करि,
सो पैठे घर माँहि॥
अर्थ व्याख्या:
परमात्मा का घर तो प्रेम का है, यह मौसी
का घर नहीं है जहाँ मनचाहा प्रवेश मिल जाए। जो साधक अपने सीस को उतार कर अपने हाथ
में ले लेता है वही इस घर में प्रवेश पा सकता है।
सात
समंद की मसि करौं, लेखनि सब
बनराइ।
धरती
सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥
अर्थ व्याख्या:
यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर
लूँ,
तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी
परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त
है।
जौं
रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ।
मनहीं
माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥
अर्थ व्याख्या:
यदि आत्मारूपी विरहिणी प्रिय के वियोग में रोती है, तो उसकी शक्ति क्षीण होती है और यदि हँसती है, तो
परमात्मा नाराज़ हो जाते हैं। वह मन ही मन दुःख से अभिभूत होकर चिंता करती है और
इस तरह की स्थिति में उसका शरीर अंदर−अंदर वैसे ही खोखला होता जाता है, जैसे घुन लकड़ी को अंदर−अंदर खा जाता है।
हाड़
जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ
घास।
सब तन
जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥
अर्थ व्याख्या:
हे जीव,
यह शरीर नश्वर है। मरणोपरांत हड्डियाँ लकड़ियों की तरह और केश घास
(तृणादि) के समान जलते हैं। इस तरह समस्त शरीर को जलता देखकर कबीर उदास हो गया।
उसे संसार के प्रति विरक्ति हो गई।
बिरह
जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर
जाऊँ।
मो
देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा
बुझाऊँ॥
अर्थ व्याख्या:
विरहिणी कहती है कि विरह में जलती हुई मैं सरोवर (या जल-स्थान) के पास गई। वहाँ
मैंने देखा कि मेरे विरह की आग से जलाशय भी जल रहा है। हे संतो! बताइए मैं अपनी
विरह की आग को कहाँ बुझाऊँ?
माया
मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।
आसा
त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास
कबीर॥
अर्थ व्याख्या:
कबीर कहते हैं कि प्राणी की न माया मरती है, न मन मरता है, यह शरीर ही बार-बार मरता है। अर्थात्
अनेक योनियों में भटकने के बावजूद प्राणी की आशा और तृष्णा नहीं मरती वह हमेशा बनी
ही रहती है।
हेरत
हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बूँद
समानी समुंद मैं, सो कत हेरी
जाइ॥
अर्थ व्याख्या:
साधना की चरमावस्था में जीवात्मा का अहंभाव
नष्ट हो जाता है। अद्वैत की अनुभूति जाग जाने के कारण आत्मा का पृथक्ता बोध समाप्त
हो जाता है। अंश आत्मा अंशी परमात्मा में लीन होकर अपना अस्तित्व मिटा देती है। यदि
कोई आत्मा के पृथक् अस्तित्व को खोजना चाहे तो उसके लिए यह असाध्य कार्य होगा।
माली
आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार।
फूली-फूली
चुनि गई,
कालि हमारी बार॥
अर्थ व्याख्या:
मृत्यु रूपी माली को आता देखकर अल्पवय जीव कहता है कि जो पुष्पित थे अर्थात् पूर्ण
विकसित हो चुके थे, उन्हें काल चुन
ले गया। कल हमारी भी बारी आ जाएगी। अन्य पुष्पों की तरह मुझे भी काल कवलित होना
पड़ेगा।
कलि का
बामण मसखरा, ताहि न दीजै दान।
सौ
कुटुंब नरकै चला, साथि लिए
जजमान॥
अर्थ व्याख्या:
कलियुग का ब्राह्मण दिल्लगी-बाज़ है (हँसी मज़ाक करने वाला) उसे दान मत दो। वह
अपने यजमान और सैकड़ों कुटुंबियों के साथ नरक जाता है।
ऐसी
बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना
तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥
कस्तूरी
कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसैं
घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै
नाँहि॥
जब मैं
था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।
सब
अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या
माँहि॥
सुखिया
सब संसार है, खाए अरु सोवै।
दुखिया
दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥
बिरह
भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम
बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ॥
निंदक
नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन
साबण पाँणीं बिना, निरमल करै
सुभाइ॥
पोथी
पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न
कोइ।
एकै
आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥
हम घर
जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर
जालौं तासका, जे चले हमारे साथि॥
पाणी
ही तैं पातला, धूवां हीं तैं झींण।
पवनां
बेगि उतावला, सो दोस्त कबीरै कीन्ह॥
अर्थ व्याख्या:
जो जल से भी अधिक पतला (सूक्ष्म) है और धुएँ
से भी झीना है और जो पवन के वेग से भी अधिक गतिमान है। ऐसे रूप वाले सूक्ष्म उन्मन
को कबीर ने अपना मित्र बनाया है।
मन
मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी
जाणि।
अर्थ व्याख्या:
मन को मथुरा (कृष्ण का जन्म स्थान) दिल को द्वारिका (कृष्ण का राज्य स्थान) और देह
को ही काशी समझो। दशवाँ द्वार ब्रह्म रंध्र ही देवालय है,
उसी में परम ज्योति की पहचान करो।
नैनाँ
अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ।
नाँ
हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन
देऊँ॥
अर्थ व्याख्या:
आत्मारूपी प्रियतमा कह रही है कि हे प्रियतम! तुम मेरे नेत्रों के भीतर आ जाओ।
तुम्हारा नेत्रों में आगमन हाते ही, मैं अपने नेत्रों को बंद कर लूँगी या तुम्हें नेत्रों में बंद कर लूँगी।
जिससे मैं न तो किसी को देख सकूँ और न तुम्हें किसी को देखने दूँ।
जाति न
पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल
करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।1।
आवत
गारी एक है, उलटत होइ अनेक।
कह
कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक।2।
माला
तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि।
मनुवाँ
तो दहुँ दिसि फिरै, यह तौ सुमिरन
नाहिं।3।
कबीर
घास न नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ।
उड़ि
पड़ै जब आँखि मैं, खरी दुहेली
होइ।4।
जग में
बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होय।
या आपा
को डारि दे, दया करै सब कोय।5।
चकवी
बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन
बिछूटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥
अर्थ व्याख्या:
रात के समय में अपने प्रिय से बिछुड़ी हुई चकवी (एक प्रकार का पक्षी) प्रातः होने
पर अपने प्रिय से मिल गई। किंतु जो लोग राम से विलग हुए हैं,
वे न तो दिन में मिल पाते हैं और न रात में।
जेहि
मारग गये पण्डिता, तेई गई बहीर।
ऊँची
घाटी राम की, तेहि चढ़ि रहै कबीर॥
अर्थ व्याख्या: जिस रास्ते से पुरोहित एवं पंडित लोग जाते हैं, उसी रास्ते से भीड़ भी जाती है, किंतु कबीर तो सबसे
अलग एवं स्वतंत्र होकर स्वरूपस्थिति रूपी राम की ऊँची घाटी पर चढ़ जाता है।
मुला
मुनारै क्या चढ़हि, अला न बहिरा
होइ।
जेहिं
कारन तू बांग दे, सो दिल ही
भीतरि जोइ॥
अर्थ व्याख्या: हे मुल्ला! तू मीनार पर चढ़कर बाँग देता है, अल्लाह बहरा नहीं है। जिसके लिए तू बाँग देता है, उसे
अपने दिल के भीतर देख।
नर-नारी
सब नरक है, जब लग देह सकाम।
कहै
कबीर ते राम के, जैं सुमिरैं निहकाम॥
अर्थ व्याख्या:
जब तक यह शरीर काम भावना से युक्त है तब तक समस्त नर-नारी नरक स्वरूप हैं। किंतु
जो काम रहित होकर परमात्मा का स्मरण करते हैं वे परमात्मा के वास्तविक भक्त हैं।
संत कबीर दास के कुछ और प्रसिद्ध दोहे:
सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥
अर्थ व्याख्या: सद्गुरु ने मुझ पर प्रसन्न होकर एक रसपूर्ण वार्ता सुनाई जिससे प्रेम रस की वर्षा हुई और मेरे अंग-प्रत्यंग उस रस से भीग गए।
कबीर मरनां तहं भला, जहां आपनां न कोइ।
आमिख भखै जनावरा, नाउं न लेवै कोइ॥
अर्थ व्याख्या: कबीर कहते हैं कि ऐसे स्थान पर मरना चाहिए जहाँ अपना कोई न हो। जानवर उसका माँस खाकर अपना पेट भर लें और उसका नाम लेने वाला कोई ना हो।
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न दृष्टि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥
अर्थ व्याख्या: प्रेम किसी खेत में उत्पन्न नहीं होता और न वह किसी हाट (बाज़ार) में ही बिकता है। राजा हो अथवा प्रजा, जिस किसी को भी वह रुचिकर लगे वह अपना सिर देकर उसे ले जा सकता है।
जो जानहु जिव आपना, करहु जीव को सार।
जियरा ऐसा पाहुना, मिले न दूजी बार॥
जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा−अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥
अर्थ व्याख्या: जिसका गुरु अँधा अर्थात् ज्ञान−हीन है, जिसकी अपनी कोई चिंतन दृष्टि नहीं है और परंपरागत मान्यताओं तथा विचारों की सार्थकता को जाँचने−परखने की क्षमता नहीं है; ऐसे गुरु का अनुयायी तो निपट दृष्टिहीन होता है। उसमें अच्छे-बुरे, हित-अहित को समझने की शक्ति नहीं होती, जबकि हित-अहित की पहचान पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। इस तरह अँधे गुरु के द्वारा ठेला जाता हुआ शिष्य आगे नहीं बढ़ पाता। वे दोनों एक-दूसरे को ठेलते हुए कुएँ मे गिर जाते हैं अर्थात् अज्ञान के गर्त में गिर कर नष्ट हो जाते हैं।कबीर ऐसा यहु संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के व्यौहार में, झूठै रंगि न भूलि॥
अंषड़ियाँ
झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ
छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥
अर्थ व्याख्या: प्रियतम
का रास्ता देखते-देखते आत्मा रूपी विरहिणी की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा है।
उसकी दृष्टि मंद पड़ गई है। प्रिय राम की पुकार लगाते-लगाते उसकी जीभ में छाले पड़
गए हैं।
परनारी
पर सुंदरी, बिरला बंचै कोइ।
खातां
मीठी खाँड़ सी, अंति कालि विष होइ॥
अर्थ व्याख्या: पराई
स्त्री तथा पराई सुंदरियों से कोई बिरला ही बच पाता है। यह खाते (उपभोग करते) समय
खाँड़ के समान मीठी (आनंददायी) अवश्य लगती है किंतु अंततः वह विष जैसी हो जाती है।
हरि रस
पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार।
मैमंता
घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥
अर्थ व्याख्या: राम
के प्रेम का रस पान करने का नशा नहीं उतरता। यही राम-रस पीने वाले की पहचान भी है।
प्रेम-रस से मस्त होकर भक्त मतवाले की तरह इधर-उधर घूमने लगता है। उसे अपने शरीर
की सुधि भी नहीं रहती। भक्ति-भाव में डूबा हुआ व्यक्ति,
सांसारिक व्यवहार की परवाह नहीं करता और उसकी दृष्टि में देह-धर्म
नगण्य हो जाता है।
सतगुर
की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन
अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥
अर्थ व्याख्या: ज्ञान
के आलोक से संपन्न सद्गुरु की महिमा असीमित है। उन्होंने मेरा जो उपकार किया है वह
भी असीम है। उसने मेरे अपार शक्ति संपन्न ज्ञान-चक्षु का उद्घाटन कर दिया जिससे
मैं परम तत्त्व का साक्षात्कार कर सका। ईश्वरीय आलोक को दृश्य बनाने का श्रेय महान
गुरु को ही है।
कबीर
यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ।
बछा था
सो मरि गया, ऊभी चांम चटाइ॥
अर्थ व्याख्या: यह
संसार अँधा है। यह ऐसी अँधी गाय की तरह है, जिसका बछड़ा तो मर गया किंतु वह खड़ी-खड़ी उसके चमड़े को चाट रही है। सारे
प्राणी उन्हीं वस्तुओं के प्रति राग रखते हैं जो मृत या मरणशील हैं। मोहवश जीव
असत्य की ओर ही आकर्षित होता है।
तीन
लोक भौ पींजरा, पाप-पुण्य भौ जाल।
सकल
जीव सावज भये, एक अहेरी काल॥
अर्थ व्याख्या: सत,
रज और तम ये तीनों गुण पिंजड़े बन गए, पाप तथा
पुण्य जाल बन गए और सब जीव इनमें फंसने वाले शिकार बन गए। एक अज्ञान-काल-शिकारी ने
सबको फंसाकर मारा।
हद चले
सो मानवा,
बेहद चले सो साध।
हद
बेहद दोऊ तजे, ताकर मता अगाध॥
अर्थ व्याख्या: जो
सर्व दुराचरणों को त्यागकर सदाचरणपूर्वक गृहस्थी मर्यादानुसार चलता है वह मनुष्य
है। जो गृहस्थी से हटकर त्याग-वैराग्यपूर्वक चलता है,
वह साधु है। और जो उक्त दोनों से परे होकर रमता है, उसका अनुभव दूसरे के लिए दुर्बोध है, वह सर्वोच्च
है।
पाणी
केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति।
एक
दिनाँ छिप जाँहिगे, तारे ज्यूं
परभाति॥
अर्थ व्याख्या: यह
मानव जाति तो पानी के बुलबुले के समान है। यह एक दिन उसी प्रकार छिप (नष्ट) जाएगी,
जैसे ऊषा-काल में आकाश में तारे छिप जाते हैं।
खीर
रूप हरि नाँव है, नीर आन व्यौहार।
हंस
रूप कोइ साध है, तत का जाणहार॥
अर्थ व्याख्या: स्वयं
भगवान क्षीर रूप हैं, जगत के अन्य
व्यवहार जल की तरह हैं। कोई विरला साधु हंस रूप है जो तत्त्व का जानने वाला है। जल
को छोड़कर क्षीर (दूध) की ओर उन्मुख भक्त जन ही होते हैं, क्योंकि
नीर-क्षीर विवेक उन्हीं में होता है।
बाग़ों
ना जा रे ना जा, तेरी काया में गुलज़ार।
सहस-कँवल
पर बैठ के, तू देखे रूप अपार॥
अर्थ व्याख्या: अरे,
बाग़ों में क्या मारा-मारा फिर रहा है। तेरी अपनी काया (अस्तित्व)
में गुलज़ार है। हज़ार पँखुड़ियों वाले कमल पर बैठकर तू ईश्वर का अपरंपार रूप देख
सकता है।
पात
झरंता यों कहै, सुनि तरवर बनराइ।
अब के
बिछुड़े ना मिलैं, कहुँ दूर
पड़ैंगे जाइ॥
अर्थ व्याख्या: पेड़
से गिरता हुआ पत्ता कहता है कि बनराजि के वृक्ष अबकी बार बिछुड़कर फिर नहीं
मिलेंगे,
गिरकर कहीं दूर हो जाएँगे। जीवात्मा जहाँ जन्म लेती है दुबारा वहाँ
उसका जन्म नहीं होता।
अंतरि
कँवल प्रकासिया, ब्रह्म वास तहाँ होइ।
मन
भँवरा तहाँ लुबधिया, जाँणौंगा जन
कोइ॥
अर्थ व्याख्या: कबीर
कहते हैं कि हृदय के भीतर कमल प्रफुल्लित हो रहा है। उसमें से ब्रह्म की सुगंध आ
रही या वहाँ ब्रह्म का निवास है। मेरा मन रूपी भ्रमर उसी में लुब्ध हो गया। इस
रहस्य को कोई ईश्वर भक्त ही समझ सकता है। किसी अन्य व्यक्ति के समझ में नहीं आएगा।
जाके
मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुहुप
बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥
अर्थ व्याख्या: जिसके
मुख और मस्तक नहीं है, न रूप है न
अरूप। वह न तो रूपवान है और न रूपहीन है, पुष्प की सुगंध से
भी सूक्ष्म वह अनुपम तत्त्व है।
चकोर भरोसे चन्द्र के, निगलै तप्त अंगार।
कहैं
कबीर डाहै नहीं, ऐसी वस्तु लगार॥
अर्थ व्याख्या: चकोर
पक्षी चंद्रमा का प्रेमी होता है वह उसके प्रेमपक्ष को कभी नहीं छोड़ता। वह तप्त
अंगार को भी चंद्रमा का अंश मानकर निगल जाता है चाहे उसकी जीभ एवं चोंच भले जल
जाएं। लगाव ऐसी वस्तु है कि वह जलता भी नहीं।
कबीर
का घर शिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।
पाँव न
टिके पिपीलका, तहाँ खलकन लादै बैल॥
अर्थ व्याख्या: जीव
की शाश्वत स्थिति उसके अपने सर्वोच्च स्वरूप चेतन में है। उस तक पहुंचने का रास्ता
फिसलन से भरा है। जहां चींटी के पैर नहीं टिकते, वहां संसार के लोग बैल पर सामान लादकर व्यापार करना चाहते हैं।
पायन
पुहुमी नापते, दरिया करते फाल।
हाथन
पर्वत तौलते, तेहि धरि खायो काल॥
अर्थ व्याख्या: जो
ओंधे पैरों से पूरी पृथ्वी नाप लेते थे, समुद्र को एक ही छलांग में कूद जाते थे और अपने हाथों से पर्वत उठा लेते
थे, उन्हें भी मौत ने धर दबोचा।
जाके
चलते रौंदे परा, धरती होय बेहाल।
सो
सावत घामें जरे, पण्डित करहू विचार॥
अर्थ व्याख्या: हे
पंडितों! विचार करो, जिनके चलने के
कारण पद-मर्दन से जमीन रगड़ जाती थी और धरती के जीव परेशान हो जाते थे, वे राजे-महाराजे एवं योद्धागण युद्धस्थल में अधमरे पड़े धूप में जलते हैं।
मसि
कागद छूवों नहीं, कलम गहो नहिं
हाथ।
चारिउ
युग का महातम, कबीर मुखहि जनाई बात॥
अर्थ व्याख्या: मैं
स्याही और कागज नहीं छूता और न कलम हाथ में पकड़ता हूँ,
चारों युगों में जिसकी महत्ता है, मैं उसकी
बातें मुख से ही बता देता हूँ।
मूवा
है मरि जाहुगे, मुये कि बाजी ढोल।
सपन
सनेही जग भया, सहिदानी रहिगौ बोल॥
अर्थ व्याख्या:
पहले के लोग मर चुके हैं। तुम भी मर जाओगे।
मुये चाम का ही तो ढोल बजता है। संसार के लोग सपने में मिले हुए प्राणी-पदार्थों
के मोही बने हैं। एक दिन यह सपना टूट जाता है। मर जाने के बाद लोगों में उसकी
चर्चा ही कुछ दिनों तक पहचान रह जाती है।
राम
नाम जिन चीन्हिया, झीना पिंजर
तासु।
नैन न
आवै नींदरी, अंग न जामें माँसु॥
अर्थ व्याख्या:
जिसका नाम राम है उस आत्मतत्व की जिन्होंने
परख की,
उसका शरीर दुर्बल होता है, उसके नेत्रों में
नींद नहीं आती तथा उसके अंगों में मांस नहीं बढ़ता।
जो जन
भीजै रामरस, बिगसित कबहुँ न रुख।
अनुभव
भाव न दरसे, ते नर सुख न दुख॥
अर्थ व्याख्या:
जो साधक आत्मचिंतन में सदैव डूबे रहते हैं,
वे न सांसारिक उपलब्धियों में हर्षित होते हैं और न उनके चले जाने
से शोकित होते हैं। सदैव स्वरूपस्थिति के अनुभव में लीन होने से उन्हें सांसारिक
भाव-तरंगें नही प्रभावित कर पातीं। अतएव वे सांसारिक वस्तुओं के मिलने-बिछुड़न में
न सुखी होते हैं और न दुखी होते हैं।
पारस
रूपी जीव है, लोह रूप संसार।
पारस
ते पारस भया, परख भया टकसार॥
अर्थ व्याख्या:
जीव पारसरूप है तथा संसार लोहरूप है। अर्थात
जीव चेतन है और संसार जड़ है। जैसे पारस से छू जाने पर लोहा सोना हो जाता है,
वैसे चेतन के संबंध से जड़ शरीर चेतनवत हो जाता है। पारस के स्पर्श
से लोहा केवल सोना होता है, पारस नहीं, परंतु पारखी सद्गुरु के संसर्ग से मनुष्य पारखी हो जाता है। यही पारस से
पारस होना है। और सत्यासत्य की परख सत्संग में होती है।
आधी
साखी सिर खड़ी, जो निरूवारी जाय।
क्या
पंडित की पोथिया, जो राति दिवस
मिलि गाय॥
अर्थ व्याख्या:
विचार एवं निर्णय करके आचरण में लायी गई
बोधप्रद आधी साखी भी पूर्ण कल्याणकारी हो सकती है। निर्णय-रहित पंडित की बड़ी-बड़ी
पोथियों को रात-दिन गाने से क्या लाभ जिनमें स्वरूप का सच्चा बोध नहीं है।
मूवा
है मरि जाहुगे, बिन शिर थोथी भाल।
परेहु
करायल बृक्ष तर, आज मरहु की काल॥
अर्थ व्याख्या:
पहले के लोग मर चुके हैं। तुम भी अविवेकरूपी
बिना धार के भोथरे भाले के प्रहारों से एक दिन मर जाओगे। क्षणभंगुर संसार रूपी
बिना पत्ते एवं बिना छाया के कंटीले झाड़ीदार करील पेड़ के नीचे पड़े हो,
आज मरो या कल।
असुन्न
तखत अड़ि आसना, पिण्ड झरोखे नूर।
जाके
दिल में हौं बसा, सैना लिये
हजूर॥
अर्थ व्याख्या:
हे जीव! जिसने शरीर के इन्द्रिय-झरोखों से
अपना ज्ञान-प्रकाश फैला रखा है, वह सत्य
चेतनस्वरूप ही तुम्हारी अविचल स्थिति-दशा है। ज्ञान-प्रकाश की सेना लेकर 'मैं' के रूप में सभी दिलों में वही उपस्थिति है।
हाड़
जरै जस लाकड़ी, बार जरै जस घास।
कबिरा
जरे रामरस, जस कोठी जरै कपास॥
अर्थ व्याख्या:
मृत शरीर का दाह करने पर उसकी हड्डी लकड़ी के
समान जलती है और बाल घास के समान जलते हैं, परंतु परोक्ष में राम मानकर उसकी उपासना एवं विरह-वेदना में जीव उसी प्रकार
भीतर-भीतर जलता रहा जैसे कोठी में कपास जल जाए और बाहर पता न चले।
एक
कहौं तो है नहीं, दोय कहौं तो
गारि।
है
जैसा रहै तैसा, कहहिं कबीर बिचारि॥
अर्थ व्याख्या:
यदि मैं कहूं कि तत्व एक है तो वैसा है ही
नहीं,
परंतु यदि कहूं कि जीव का आश्रय-स्थल कोई दूसरा है तो यह भी अनुचित
बात है। इसलिए कबीर साहेब विचारपूर्वक कहते हैं कि जैसी वास्तविकता है वैसी दशा
में ही स्थित होना चाहिए।
हंसा
मोति बिकानिया, कंचन थार भराय।
जो
जाको मरम न जाने, सो ताको काह
कराय॥
अर्थ व्याख्या: जैसे
हंस मोती चुगने के प्रलोभन में पड़कर तथा बधिक के जाल में फंसकर बाज़ार में बिक जाए।
वैसे चेतन-मानव मुक्ति के प्रलोभन में पड़कर तथा थाली में स्वर्ण-मोहरें भरकर
गुरुओं को अर्पित करता है और उनके जाल में फंसकर संसार-बाज़ार में बिक जाता है,
किंतु जो भ्रमिक एवं अधकचरे गुरु स्वयं मुक्ति का रहस्य नहीं जानते
हैं, शिष्यों को क्या रास्ता बता सकते हैं।
पाँच
तत्व का पूतरा, युक्ति रची मैं कीव।
मैं
तोहि पूछौं पंडिता, शब्द बड़ा की
जीव॥
अर्थ व्याख्या: पांच
तत्वों के इस पुतले शरीर को मैंने ही रचकर तैयार किया है। हे पंडितों! मैं तुमसे
पूछता हूँ कि शब्द बड़ा होता है या जीव?
मानुष
तेरा गुण बड़ा, माँसु न आवे काज।
हाड़ न
होते आभरण, त्वचा न बाजन बाज॥
अर्थ व्याख्या: हे
मनुष्य! तेरे दयादि सद्गुण ही श्रेष्ठ हैं, अन्यथा तेरा शरीर व्यर्थ है। न तेरा मांस किसी के काम में आता है, न तेरी हड्डी के आभूषण बनते हैं और न तेरे चाम के बाजे बनकर बजते हैं।
बिरह
की ओदी लाकड़ी, सपचै औ धुँधवाय।
दुख ते
तबहीं बाँचिहो, जब सकलो जरि जाय॥
अर्थ व्याख्या:
जैसे पानी से भीगी गीली लकड़ी को जलाने पर वह
धू-धू कर सुलगती है, ठीक से जलती
नहीं, उसका धू-धू कर सुलगना तभी समाप्त होता है जब वह
पूर्णतया जल जाती है, वैसे जो व्यक्ति अपने सुख एवं लक्ष्य
को अपने से अलग मानकर उसके वियोग की पीड़ा का अनुभव करता है वह मन-ही-मन निरंतर
सुलगता और रोता रहता है। इस दुख से वह तभी बचता है जब उसके मन की सारी वासनाएं एवं
कल्पनाएं जल जाती हैं।
बिन
देखे वह देश की, बात कहै सो कूर।
आपुहि
खारी खात है, बेंचत फिरै कपूर॥
अर्थ व्याख्या:
जीवन्मुक्ति एवं स्वरूपस्थिति का अनुभव किए
बिना जो उसका अधिकारपूर्वक न करते हैं,
वे कायर एवं मूर्ख हैं। वे स्वयं तो विषय-भोगरूपी नमक खाते हैं और
दूसरे को श्रेष्ठ ज्ञानरूपी कपूर बांटते फिरते हैं।
बिनु
डाँड़े जग डाँड़िया, सोरठ परिया
डाँड़।
बाटनि
हारे लोभिया, गुर ते मीठी खाँड़॥
अर्थ व्याख्या:
संसार के लोगों को किसी ने दण्डित नहीं किया,किंतु ये अपने अज्ञानवश स्वयं ही दण्डित हुए। इनका मानव-जीवनरूपी जुआ
व्यर्थ गया। ये सुख के लोभी अपने कल्याण की इच्छा का दांव हार गए। गुड़ से शकर मीठा
होता है, परंतु ये गुड़ को शकर न बना सके अर्थात जीवन को
तपाकर आध्यात्मिक लाभ न ले सके।
घुँघुँची
भर के बोइये, उपजा पसेरी आठ।
डेरा
परा काल का, साँझ सकारे जात॥
अर्थ व्याख्या:
पुरुष द्वारा नारी-क्षेत्र में थोड़ी मात्रा
में सजीव वीर्य सिंचन से पांच विषय एवं तीन गुण से संबंधित मानो आठ पसेरी एवं मन
भर का शरीर पैदा हो जाता है। और शरीर के पैदा होते ही मानो उसमें काल का पड़ाव पड़
जाता है। रात और दिन बीतते हैं और शरीर क्षीण होता है। परंतु यदि कोई पांच विषय
एवं तीन गुणयुक्त इस आठ पसेरी के निर्जीव शरीर को गाड़ दे और इससे चाहे कि एक
देहधारी का पिंड पैदा हो जाए तो असंभव है। जीवन-निर्माण का एक प्राकृतिक-क्रम है।
सब कुछ या कुछ भी अचानक नहीं हो जाता है। परंतु लोग मेरी कारण-कार्य-व्यवस्था के
विचारों को नहीं समझते, अत: वे
भौतिकवादी दृष्टि अपनाकर अंत में अपने आप को खोकर चलते हैं।
गुरु
सिकलीगर कीजिये, मनहि मस्कला देय।
शब्द
छोलना छोलिके, चित दर्पण करि लेय॥
अर्थ व्याख्या: जिस
प्रकार सिकलीगर मसकला देकर धातुओं को उज्ज्वल कर देता है,
उसी प्रकार ऐसे सद्गुरु की शरण लो जो तुम्हारे मन पर विवेक का मसकला
देकर, निर्णय शब्दरूपी छोलने से छीलकर और मल, विक्षेप तथा आवरणरूपी मूर्चा को झाड़कर तुम्हारे चित्त को दर्पणवत स्वच्छ
बना दे।
प्रेम
पाट का चोलना, पहिर कबीरु नाच।
पानिप
दीन्हों तासु को, जो तन मन बोले
साँच॥
अर्थ व्याख्या:
हे मनुष्य! प्रेमरूपी वस्त्र का अंगरखा
पहनकर नाचो, अर्थात अपने जीवन के सारे
व्यवहार प्रेमपूर्वक करो। यह विश्व-प्रकृति उसी के जीवन में चमक देती है और विवेकवान
मानव भी उसी की मर्यादा करते हैं जिसके तन में, मन में और
वचन में एक सत्य ही समाया हो।
दोहरा
तो नौ तन भया, पदहि न चीन्हैं कोय।
जिन्ह
यह शब्द विवेकिया, छत्र धनी है
सोय॥
अर्थ व्याख्या:
जीव अपने शुद्ध चेतनस्वरूप को भूलकर दूसरी
एवं विजाति दृश्य-माया में मोह करता है, इसलिए उसे भव-सागर में भटकते हुए नए-नए शरीरों की प्राप्ति होती है।
क्योंकि विजाति जड़-दृश्यों से हटकर कोई अपने चेतनस्वरूप को तो पहचानता नहीं। जो
व्यक्ति उक्त बातों पर विवेक कर तथा जड़-दृश्यों का राग छोड़कर अपने शुद्ध
चेतनस्वरूप में स्थित होता है, वह स्वरूपस्थिति के उच्चासन
पर आरूढ़ होकर स्वतंत्र, सुखी एवं सम्राट हो जाता है।
जो घर
हैगा सर्प का, सो घर साध न होय।
सकल
संपदा ले गये, विष भरि लागा सोय॥
अर्थ व्याख्या:
जो सांप का घर है,
वह साधु का घर नहीं है। अर्थात विषयासक्ति और देहादि का अहंकार तो
जीव की सारी आध्यात्मिक शक्ति नष्ट कर देते हैं और सांसारिकता का विष लेकर उसमें
चिपक जाते हैं।
पाँच तत्त्व
के भीतरे,
गुप्त बस्तु अस्थान।
बिरला
मर्म कोई पाइ हैं, गुरु के शब्द
प्रमान॥
अर्थ व्याख्या:
पांच तत्वों से बने इस शरीर के भीतर-स्थान
में एक अदृश्य ज्ञानस्वरूप चेतन जीव निवास करता है। परंतु सद्गुरु के निर्णय वचनों
के प्रमाणों से कोई बिरला उसका भेद ठीक से जान सकता है।
गही
टेक छोड़ै नहीं, जीभ चोंच जरि जाय।
ऐसो
तप्त अंगार है, ताहि चकोर चबाय॥
अर्थ व्याख्या:
चकोर पक्षी चंद्रमा का प्रेमी होता है वह
उसके प्रेमपक्ष को कभी नहीं छोड़ता। वह तप्त अंगार को भी चंद्रमा का अंश मानकर निगल
जाता है चाहे उसकी जीभ एवं चोंच भले जल जाएं। लगाव ऐसी वस्तु है कि वह जलता भी
नहीं।
बिरह
बाण जेहि लागिया, औषध लगे न
ताहि।
सुसुकि-सुसुकि
मरि-मरि जिवै, उठे कराहि-कराहि॥
अर्थ व्याख्या:
जिसको विरह का बाण लग गया है,
अर्थात जो समझता है कि मेरा लक्ष्य मुझसे अलग है, उसको स्वरूप-विचार की औषधि नहीं लगती। वह तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए
सुबक-सुबककर रोता है, मूर्छित होता है, जागता है और अपने प्रियतम के वियोग की याद में बारम्बार कराह उठता है।
धौंकी
डाही लाकड़ी, वो भी करे पुकार।
अब जो
जाय लोहार घर, डाहै दूजी बार॥
अर्थ व्याख्या:
जली हुई धौं की लकड़ी कोयला बनकर चिल्लाती है
कि यदि मैं लोहार के घर गई तो वह मुझे पुन: जलाएगा। अर्थात जन्म-जन्मान्तरों एवं
गर्भवास से पीड़ित मुमुक्षु जीव सद्गुरु की शरण में पुकरता है कि हे सद्गुरु,अब मुझे संसार-सागर से बचा लो, अन्यथा यदि
अज्ञानरूपी लोहार के हाथों में पड़ गया तो मैं उसके द्वारा पुन: संसार के तापों में
जलाया जाऊंगा।
मानुष
जन्म दुर्लभ है, बहुरि न दूजी बार।
पक्का
फल जो गिर पड़ा, बहुरि न लागै डार॥
अर्थ व्याख्या:
मनुष्य का जन्म पुन: मिलना बड़ा कठिन है। पके
फल जब डाली से टूटकर गिर पड़ते हैं तब वे पुन: लौटकर उसमें नहीं लगते। इसी प्रकार
जीव जब देह छोड़कर चला जाता है तब पुन: उसमें नहीं लौटता।
गोरख
रसिया योग के, मुये न जारी
देह।
माँस
गली माटी मिली, कोरी माँजी
देह॥
हंसा
सरवर तजि चले, देही परिगौ सून।
कहहिं
कबीर पुकारि के, तेहि दर तेहि थून॥
अर्थ व्याख्या: जब
जीव शरीर छोड़कर चला जाता है, तब यह
शरीर चेतना से शून्य होकर मुरदा हो जाता है। सद्गुरु जोर देकर कहते हैं कि
कर्माध्यासी जीव पुन: उसी गर्भ में प्रवेश करता है, जहाँ
उसका शरीर निर्मित होता है।
मन
माया की कोठरी, तन संशय का कोट।
बिषहर
मंत्र माने नहीं, काल सर्प की
चोट॥
अर्थ व्याख्या: यह
मन माया की कोठरी है और शरीर संदेहों एवं भ्रांतियों का किला है। अज्ञानरूपी सांप
ने मनुष्य को डसकर उसके अंग में ऐसा घाव बना दिया है कि उस पर सत्योपदेश का कोई
प्रभाव नहीं पड़ता जिससे उसका विष दूर हो।
झिलमिल
झगरा झूलते, बाकि छूटि न काहु।
गोरख
अटके कालपुर, कौन कहावै साहु॥
अर्थ व्याख्या: प्राणायाम
करते हुए त्राटकादि हुए मुद्रा द्वारा झिलमिल ज्योति देखने के झगड़े में पड़कर सभी
योगी इस भ्रम-झूले में झूलते हैं। इनमें से इससे कोई नहीं बचा। गोरखनाथ-जैसे
महापुरुष भी इस कल्पना के नगर में फंस गए, फिर दूसरा कौन विवेकी कहलाएगा।
पानि
पियावत क्या फिरो, घर-घर सायर
बारि।
तृषावन्त
जो होयगा,
पीवगा झख मारि॥
अर्थ व्याख्या: उपदेश क्या
देते फिरते हो! सबके मन में ज्ञान का सागर भरा है, अर्थात् सबको अहंकार है कि हम ज्ञानी हैं। जो व्यक्ति सत्योपदेश का प्यासा
होगा, वह अहंभाव छोड़कर स्वयं ग्रहण करेगा।
शब्द
हमारा आदि का, पल-पल करहु याद।
अन्त
फलेगी माँहली, ऊपर की सब बाद॥
अर्थ व्याख्या:
हमारे निर्णय-शब्द मूल चेतनस्वरूप के
परिचायक हैं, अत: ऐसे शब्दों का निरंतर
मनन-चिंतन करो। इसके अंतिम फल में स्वरूपस्थिति रूपी महल के निवासी बन जाओगे,
ऊपर की माया तो सब व्यर्थ है।
कनक
कामिनी देखि के, तू मत भूल सुरंग।
मिलन
बिछुरन दुहेलरा, जस केंचुलि तजत भुवंग॥
अर्थ व्याख्या:
हे ज्ञानस्वरूप जीव! धन-ऐश्वर्य और
स्त्री-पुत्रादि की चमक-दमक देखकर तू मत भूल! सांप के शरीर में केंचुली आने और
उसके जाने-दोनों में जैसे उसे कष्ट होता है, वैसे माया के प्राप्त करने तथा उसके बिछुड़ने-दोनों में जीव को कष्ट होता
है।
नौ मन
दूध बटोरि के, टिपके किया बिनास।
दूध
फाटि काँजी भया, हुवा घृत का नाश॥
अर्थ व्याख्या:
नौ मन दूध इकट्ठा किया गया,परंतु उसमें सिरका आदि खट्टे रस की कुछ बूँदें डाल दी गईं, तो वह सारा दूध नष्ट हो गया, क्योंकि दूध फटकर खट्टा
पानी हो गया और घी का नाश हो गया। अभिप्राय है कि पाँच तत्त्व, तीन गुण युक्त मानव शरीर में नवां जीव विद्यमान है, परंतु
एक अज्ञान के कारण जीवन व्यर्थ गया और जीव दुःख में ही पड़ा रहा।
साँप
बिच्छू का मंत्र है, माहुरहू झारा
जाय।
विकट
नारि के पाले परे, काढ़ि कलेजा
खाय॥
अर्थ व्याख्या:
सर्प तथा बिच्छू के काट और छेद लेने पर उनके
विष को दूर करने के लिए वैद्य एवं डॉक्टरों की अनेक राय हैं। खाया हुआ विष भी औषध
देकर टट्टी एवं वमन द्वारा गिराया जा सकता है। परंतु भयंकर स्त्री के चंगुल में
फंस जाने पर उसके विष से छुटकारा पाना कठिन है। वह पुरुष का कलेजा निकालकर खा लेती
है।
चन्दन
सर्प लपेटिया, चन्दन काह कराय।
रोम-रोम
विष भीनिया, अमृत कहाँ समाय॥
अर्थ व्याख्या:
जीव को अहंकार सर्प न लपेट रखा है,
अत: जीव बेचारा क्या करे! उसके रोम-रोम में तो विषयासक्ति भीनी हुई
है, फिर उसमें स्वरूप-विचार एवं शांतिरूपी अमृत कहां समाए।
लोभे
जन्म गँमाइया, पापै खाया पून।
साधी
सो आधी कहैं, ता पर मेरा ख़ून॥
अर्थ व्याख्या:
लोग अपना जीवन लोभ में खो देते हैं। लोभ तो
पाप की जड़ है। वह पुण्य को खा जाता है। अधकचरे गुरु साधक-जीव से परमार्थ की
आधी-अधूरी बातें करते हैं। उन पर मुझे गुस्सा आता है।
कल काठी कालू घुना,
जतन-जतन घुन खाय।
काया
मध्ये काल बसत है, मर्म न काहू
पाय॥
अर्थ व्याख्या: जड़
तत्वों से बना यह शरीर एवं शरीर की गठन बहुत कमजोर है। इसमें काल का घुन लगा है और
वह धीरे-धीरे इसे खाकर निकम्मा बना रहा है। कोई यह रहस्य नहीं जानता कि शरीर के
अंदर ही काल रहता है।
शब्द
हमारा तू शब्द का, सुनि मति जाहु
सरक।
जो
चाहो निज तत्त्व को, तो शब्दहि लेह
परख॥
अर्थ व्याख्या: हे
मानव! जो हमारे निर्णय वचन हैं, तुम उनके
अधिकारी हो, परंतु उन्हें सुनकर खिसक न जाओ, प्रत्युत उनका आचरण करो। तुम यदि अपने मूल स्वरूप का बोध चाहते हो,
तो सार-असार शब्दों की परख करो।
ज्यों
दर्पण प्रतिबिंब देखिये,आपु दुहुँनमा
सोय।
यह
तत्व से वह तत्व है, याही से वह
होय॥
अर्थ व्याख्या: जैसे
मनुष्य दर्पण में अपने शरीर का प्रतिबिंब देखता है, तो बिम्ब शरीर एवं प्रतिबिंब छाया-दोनों में उसी की ही सत्ता रहती है।
बिम्ब तत्व से ही प्रतिबिम्ब-तत्व बनता है, दर्पण में इस
शरीर की ही छाया पड़ती है, वैसे जिस प्रकार हमारी मान्यता
होती है, उसी प्रकार हमारी भावना बनती है।
जो
जानहु जग जीवना, जो जानहु सो जीव।
पानि
पचावहु आपना, तो पानी माँगि न पीव॥
अर्थ व्याख्या:
यदि जगत में जीने की कला जानते हो और उस जीव
को भी जानते हो जो तुम्हारा स्वरूप है, तो आज तक की ग्रहण की हुई सारी वासनाओं को नष्ट कर दो तथा आगे किसी प्रकार
वासना संसार से न ग्रहण करो।
माया
तजे क्या भया, जो मान तजा नहिं जाय।
जेहि
माने मुनिवर ठगे, सो मान सबन को
खाय॥
अर्थ व्याख्या: स्त्री,पुत्र,घर धन त्यागकर कोई साधुवेष धर लिया तो क्या
विशेषता हो गई, यदि उसने अपने माने हुए बड़प्पन का घमंड नहीं
छोड़ा। जिस बड़प्पन के अहंकार ने बड़े-बड़े ऋषियों-मुनियों को पथभ्रष्ट कर दिया,
वही अहंकार आज भी सबको भ्रष्ट कर रहा है।
चार
चोर चोरी चले, पगु पनहीं उतार।
चारिउ
दर थूनी हनी, पंडित करहु बिचार॥
अर्थ व्याख्या: मन,
बुद्धि, चित्त तथा अहंकार- ये चार चोर चुपचाप
जीव के ज्ञान-धन की चोरी करने के लिए चले और विषयों के मनन, चिंतन,
निश्चय एवं करतूति रूप चार दरों में भास-अध्यास की थूनियां गाड़ दीं।
हे पंडितो, इन पर विचार करो और इनके फंदों से बचो।
आगे
सीढ़ी साँकरी, पीछे चकनाचूर।
परदा
तर की सुंदरी, रही धका से दूर॥
अर्थ व्याख्या:
कोई बहुत ऊँची जगह पर चढ़ गया हो,
परंतु वहां से और भी उंची जगह पर चढना हो और ऊँचे पर जाने के लिए
आगे सीढ़ी बहुत संकरी तथा खड़ी हो। नीचे जितना पार कर आया हो वह भी बहुत गहरा हो।
ऐसी अवस्था में धैर्यहीन यात्री की स्थिति बड़ी कायरतापूर्वक हो जाती है। वह ऊपर
देखता है तो सीढ़ी बहुत संकरी तथा खड़ी है, उस पर चढ़ने की
हिम्मत नहीं हो रही है और पीछे देखता है तो बहुत गहरा है, उसे
देखकर मन चकनाचूर हो जाता है। अत: वह कायरतापूर्वक बैठ जाता है। इसी प्रकार कोई
परदे के भीतर रहने वाली सुकुमारी सुंदरी नारी हो, वह नावका
पर समुद्र की यात्रा कर रही हो, बीच में झंझावत आने से उसे
धूप और हवा सहन न होती हो,इसीलिए वह बीच ही में से अपनी
यात्रा स्थगित कर किनारे से दूर मझधार में ही लंगर डालकर बैठ गई हो, तो उसकी दशा भी दयनीय हो जाती है।
विषयासक्त,
सुखाध्यासी एवं आरामतलब लोगों की यही दशा है। कुछ शुद्ध संस्कार
होने से मनुष्य कल्याण-पथ में चल पड़ा। परंतु उसे कुछ चलकर आगे का मार्ग कठिन दिखा
और पीछे संसार में विषयासक्तिजनित दुख देखता है, तो उसका मन
चकनाचूर हो जाता है। इस प्रकार वह परदातर की सुंदरी बनकर अर्थात आसक्ति को
जीवन-प्राण मानकर बीच धारा में ही पड़ा रह गया, कल्याण-तट पर
नहीं लगा।
हिलगी
भाल शरीर में, तीर रहा है टूट।
चुंबक
बिना न नीकरे, कोटि पाहन गये छूट॥
अर्थ व्याख्या:
शरीर में तीर घुसकर और उसका नोक टूटकर शरीर
के अंदर रह गया। वह चुंबक-पत्थर के बिना नहीं निकल सकता। अन्य करोड़ो पत्थर उसे
नहीं निकाल सकते। इसी प्रकार मनुष्य के मन में वचन के बाण घुसकर उसमें जम गए हैं।
बिना विवेक-ज्ञान के वे नहीं निकल सकते। करोड़ो थोथे ज्ञान उनके लिए बेकार हैं।
हरि
हीरा जन जौहारी, सबन पसारी हाट।
जब आवै
जन जौहरी,
तब हीरों की साट॥
अर्थ व्याख्या:
सभी मत के गुरुजनों ने अपने ज्ञानरूपी हीरों
को सत्संगरूपी बाजार में फैलाकर दुकानें लगा रखीं हैं। परंतु जब कोई ज्ञान-हीरे का
सच्चा पारखी आएगा, तब इनके हीरों
की परख करेगा। सच्चा पारखी ही असली तथा नकली हीरे की परख करता है।
रतन का
जतन करु,
माँड़ी का सिंगार।
आया
कबीरा फिर गया, झूठा है हंकार॥
अर्थ व्याख्या: मानव-शरीररूपी
रत्न को अच्छे उपाय से रखो, अथवा महान-रत्न
अपने जीव को, अपनी चेतना-आत्मा को सम्हालकर रखो। जिस माया के
श्रृंगार एवं चटक-मटक में तुम भूलते हो, वह पसेव चढ़े हुए
चिकने कपड़े या सजे हुए बाजार के समान दिखाऊ एवं क्षणभंगुर है। सद्गुरु कहते हैं कि
जीव संसार में आते हैं और फिर थोड़े दिनों में लौट जाते हैं, इसलिए
यहां का अहंकार मिथ्या है।
मानुष
तैं बड़ पापिया, अक्षर गुरुहि न मान।
बार-बार
बन कूकुही, गर्भ धरे और ध्यान॥
अर्थ व्याख्या: हे भूला मानव! तू बड़ा पापी
है जो गुरु के दिए हुए अविनाशी स्वरूप के उपदेश को नहीं मानता और नाशवान देहादि
में पचता है। जैसे बनमुरगी बारम्बार गर्भ धारणकर अंडे देती है और उन्हीं के सेने
में ध्यान रखती है, वैसे तू भी देह,
गेह परिवार आदि का अहंकार कर उन्ही की सुरक्षा में सदैव ध्यान रखता
है और अविनाशी निर्भय स्थिति से दूर रहता है।
तीन
लोक चोरी भई, सबका सरबस लीन्ह।
बिना
मूड़ का चोरवा, परा न काहू चीन्ह॥
अर्थ व्याख्या: तीनों गुणों में आसक्त
जीवों के हृदय में चोरी हो गई, और मन
रूपी चोर ने सबका सर्वस्व चुरा लिया। वह चोर बिना सिर का है, इसलिए उसे कोई पहचान नहीं पाया।
मानुष
बिचारा क्या करे, जाके कहै न
खुलै कपाट।
स्वनहा
चौक बैठाय के, फिर-फिर ऐपन चाट॥
अर्थ व्याख्या: बेचारे
विवेकवान,
सत्योपदेश देकर क्या करें जब उनके कहने पर भी संसारियों का
हृदय-कपाट नहीं खुलता। जैसे किसी ने पूजा के समय वेदी पर कुत्ता को बैठा दिया और
वह अपने स्वभाववश बारम्बार मांगलिक पदार्थों को चाटकर उसे अशुद्ध करता रहा,
वैसे मनुष्य का लोलुप मन बारम्बार विषयों में डूबकर गुरु के
सत्योपदेश पर पानी फेरता रहता है।
काला
सर्प शरीर में, खाइनि सब जग झारि।
बिरले
ते जन बाँचि हैं, जो रामहि भजे
बिचारि॥
अर्थ व्याख्या: कामरूपी काला सर्प सबके
हृदय में बसता है। उसने संसार के सभी लोगों को निपट खा लिया है। उससे वही बिरला
बचता है,
जो विचारपूर्वक राम का भजन करता है।
यहाँ ई
सम्मल करिले, आगे विषई बाट।
स्वर्ग
बिसाहन सब चले, जहाँ बनियाँ न हाट॥
अर्थ व्याख्या: वर्तमान स्वस्थ नरजन्म में
अपनी कल्याण-साधना कर लो। इसके अतिरिक्त पशु आदि योनियों में तो केवल विषयों का
मार्ग है। सब जीव स्वर्ग में कल्याण-सौदा खरीदने चले,
जहाँ न वणिक हैं, न बाज़ार। अर्थात् जहाँ न
सद्गुरु हैं, न सत्संग।
एक
शब्द गुरुदेव का, ताका अनंत
विचार।
थाके
मुनिजन पंडिता, बेद न पावैं पार॥
अर्थ व्याख्या: 'मोक्ष' गुरुदेव के इस एक शब्द पर मनीषियों ने असंख्य
विचार किए हैं। मुनिजन तथा विद्वानजन विचार करके थक गए हैं। वेदों ने इसका पार
नहीं पाया है।
शब्द-शब्द
सब कोई कहैं, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या
पर आवै नहीं, निरखि परखि करि लेह॥
अर्थ व्याख्या: सभी मतवादी शब्द-ही-शब्द
को अपना उपास्य एवं लक्ष्य कहते हैं, परंतु व्यक्ति का जो उपासनीय एवं लक्ष्य है वह तो शब्द के जालों से सर्वथा
रहित शुद्ध चेतन है। वह जीभ पर आने की वस्तु नहीं है। उसकी केवल निरख-परख करो।
बड़े
गये बड़ापने, रोम-रोम हंकार।
सतगुरु
के परचै बिना, चारों बरन चमार॥
अर्थ व्याख्या: कितने बड़े कहलाने वाले
अपने मिथ्या बड़प्पन के मद में नीचे गिर गए, क्योंकि उनके रोयें-रोयें में अहंकार भरा था। सद्गुरु के द्वारा
स्वरूपज्ञान पाए बिना दैहिक बुद्धि रखने वाले चारों वर्ण के लोग चमार हैं,क्योंकि उनकी समझ चाम की देह तक है।
शब्द
बिना सुरति आँधरी, कहो कहाँ को
जाय।
द्वार
न पावै शब्द का, फिर-फिर भटका खाय॥
अर्थ व्याख्या: निर्णय-वचनों को न पाने से
मनुष्य का मन विवेकहीन होकर अंधा हो गया है। कहो भला,
वह कहाँ जाएगा? वह शब्दों का द्वार गुरुमुख
निर्णय वचन न पाने से बारंबार कल्पित शब्दों के भंवरजाल में भटका खाता है।
विष के
बिरवे घर किया, सर्प रहा लपटाय।
ताते
जियरहिं डर भया, जागत रैनि बिहाय॥
अर्थ व्याख्या: किसी ने जहर के पेड़ पर
अपना निवास स्थान बनाया, जिसमें सांप
लिपटे हैं। इसलिए उसके जी में भय समाया है और वह भय में ही रात और दिन बिता रहा
है। अर्थात अहंकार-सर्प से लिपटे हुए विषयों में जीव आसक्त है। इसलिए उसके रात-दिन
भय में बीत रहे हैं।
मैं
रोवों यह जगत को, मोको रोवे न
कोय।
मोको
रोवे सो जना, जो शब्द विवेकी होय॥
अर्थ व्याख्या: मैं जगत के जीवों को दुखी
देखकर उनके दुखों से स्वयं दुखी होकर उन्हें सन्मार्ग बताता हूँ,
परंतु वे आर्त होकर उत्साहपूर्वक मेरी बातों पर ध्यान नहीं देते।
मेरी बातों पर वही ध्यान देता है जो शब्दों का विवेकी है।
काटे
आम न मौरसी, फाटे जुटै न कान।
गोरख
पारस परसे बिना, कौने को नुकसान॥
अर्थ व्याख्या: आम
का पेड़ काट देने पर न वह पुन: विकसित होता है और न उसमें बौर लगते हैं। इसी प्रकार
कान को फाड़ देने पर वह पुन: नहीं जुटता। ऐसे ही सारी वासनाओं को परख कर छोड़ देने
पर जीव पुन: भवबंधनों में नहीं पड़ता। हे योगिराज गोरखनाथ! यदि लोहा पारस-पत्थर का
स्पर्श नहीं करता है तो किसकी हानि है, लोहे की या पारस की? वस्तुत: लोहे की ही हानि है।
इसी प्रकार यदि व्यक्ति पारखी गुरु के पास जाकर और उनसे प्रेरणा लेकर सारे
भवबंधनों को नहीं छोड़ता है तो व्यक्ति की ही हानि है।
माया
जग साँपिनि भई, विष ले पैठि पताल।
सब जग
फंदे फंदिया, चले कबीरू काछ॥
अर्थ व्याख्या: संसार
में माया भयंकर सर्पिणी हो गई है जो विषयासक्ति रूपी विष को लेकर मनुष्य के हृदय
में पैठ गई है। संसार के सारे लोग इस बंधन में बंध गए हैं,
परंतु कबीर इससे अपने आप को बचाकर अलग हो गए।
एक ते
अनंत भौ,
अनंत एक ह्वै आय।
परिचय
भई जब एकते, तब अनंतों एकै माहि समाय॥
अर्थ व्याख्या: एक
मनुष्य शरीर ही कर्मभूमि है। इसी में जीव असंख्य कर्म करता है जिनके फलस्वरूप वह
असंख्य योनियों में भटकता है। परंतु असंख्य योनियों में से भटककर जीव पुन: मनुष्य
शरीर में आता है ''भूलि भटक नर
फिर घट आया।'' जब उसे इस एक मनुष्य शरीर में स्वरूप की परख
हो जाती है तब असंख्य कर्मसंस्कार तथा नाना योनियों के अध्यास यहां नष्ट हो जाते
हैं और जीव मुक्त हो जाता है। अथवा एक जीव से ही सारे ज्ञान-विज्ञान पैदा होते
हैं। अत: जब निज स्वरूप से परिचय हो जाता है तब सारे ज्ञान-विज्ञान अपने में समाए
हुए लगते हैं।
सुकृत
बचन माने नहीं, आपु न करे विचार।
कहहिं
कबीर पुकारि के, सपनेहु गया संसार॥
अर्थ व्याख्या: लोग संतो के पवित्र एवं
सत्य वचनों को मानते नहीं और स्वयं भी विचारकर सत्यज्ञान एवं सत्य आचरण ग्रहण करते
नहीं। कबीर साहेब लोगों को बलपूर्वक पुकारकर कहते हैं कि संसार के लोग अपने जीवन
को स्वपन के समान व्यर्थ खोकर चले गए और चले जा रहे हैं।
मानुष
बिचारा क्या करे, जाके शून्य
शरीर।
जो जिव
झाँकि न ऊपजे, तो कहा पुकार कबीर॥
अर्थ व्याख्या: विवेकवान उपदेशक बेचारे
उपदेश देकर उसे क्या लाभ पहुंचा सकते हैं जिसका हृदय श्रद्धाभाव से रहित है।
सद्गुरु कहते हैं कि उसे पुकारकर क्या बुलाया जाए जिसे साथ में आने का उत्साह नहीं
है! अर्थात जिसके दिल में स्वरूप-साक्षात्कार एवं आत्मकल्याण का प्रेम नहीं जगता,
उसको उपदेश देकर क्या लाभ!
पाँच
तत्त्व का पूतरा, मानुष धरिया
नाँव।
एक कला
के बीछुरे, बिकल होत सब ठाँव॥
अर्थ व्याख्या: पाँच
तत्व के पुतले इस शरीर को धारण करने से जीव का नाम मनुष्य रखा गया। परंतु एक
सद्बुद्धि के बिना यह सब जगह पीड़ित रहता है।
तीन
लोक टीड़ी भया, उड़ा जो मन के साथ।
हरिजन
हरि जाने बिना, परे काल के हाथ॥
अर्थ व्याख्या: जैसे
टिड्डी कीड़े हवा के साथ उड़कर यत्र-तत्र नष्ट हो जाते हैं,
वैसे त्रिगुणी मनुष्य मन की कल्पनाओं के साथ उड़कर जहां-तहां पतित हो
जाते हैं। हरी-भक्त हरि का रहस्य न समझकर मन की कल्पनाओं के फंदे में फंस गए।
हीरा
सोइ सराहिये, सहै घनन की चोट।
कपट
कुरंगी मानवा, परखत निकरा खोट॥
अर्थ व्याख्या: हीरा वही प्रशंसनीय है जो
घनों की चोट सहन कर ले और न टूटे। इसी प्रकार बात, सिद्धांत एवं मनुष्य वे ही प्रशंसनीय हैं जो तर्कों तथा द्वंदों में न
टूटें। परंतु कपट और कुभावनाओं से भरे मनुष्यों पर, परख की
कसौटी लगाते ही वे खोटे निकलते हैं।
सेमर
सुवना बेगि तजु, तेरी घनी बिगुर्ची पाँख।
ऐसा
सेमर जो सेवै, जाके हृदया नाहीं आँख॥
अर्थ व्याख्या: हे सुग्गे! सारहीन फल वाले
सेमल के पेड़ को शीघ्र छोड़ दे। सेमल की रुई में तेरे पंख बहुत उलझ गए हैं। ऐसे नीरस
सेमल-फल का सेवन वही करता है जिसके हृदय में विवेक की आंखें नहीं होतीं।
मूल
गहे ते काम है, मैं मत भरम भुलाव।
मन
सायर मनसा लहरि, बहै कतहुँ मत जाव॥
अर्थ व्याख्या: निजस्वरूप
का बोध एवं स्थिति ग्रहण करने से ही कल्याण है। हे मानव! तू नाना वाणियों एवं
मान्यताओं के भ्रम में पड़कर अपने स्वरूप को मत भूल। मन समुद्र है और उसकी इच्छाएं
तरंगें हैं, उनमें बहकर कहीं मत जा।
रंगहि
ते रंग ऊपजे, सब रंग देखा एक।
कौन
रंग है जीव का, ताका करहु विवेक॥
अर्थ व्याख्या: रंगों से ही अन्य रंगों की
उत्पत्ति होती है। अंत में देखा गया, तो सब रंग एक-जड़ है। जीव का रंग कौन-सा है इसका विवेक करो।
तामस
केरे तीन गुण, भँवर लेइ तहाँ बास।
एकै
डारी तीन फल, भाँटा ऊख कपास॥
अर्थ व्याख्या: तम: प्रधान माया के सत,
रज तथा तम तीन गुण हैं। इन्हीं में वासनावशी जीव आसक्त हैं। एक ही
डाली में भांटा, ऊख और कपास फले हों तो यह अद्भुत घटना होगी।
माया एवं प्रकृति में यही घटना घटी है। यहां सत, रज और तम एक
ही प्रकृति में विद्यमान हैं।
मन
माया तो एक है, माया मनहिं समाय।
तीन
लोक संशय परी, मैं काहि कहौं समुझाय॥
अर्थ व्याख्या: जल-तरंग
न्याय मन और माया एक ही है। माया मन में ही लीन है। परंतु संसार के लोगों के हृदय
में यह भ्रम है कि माया मनुष्य के मन से अलग एक निरपेक्ष तत्त्व है जो किसी ईश्वर
या ब्रह्म से चालित है और उसके द्वारा वह जीवों पर दौड़ा दी जाती है। सद्गुरु कहते
हैं कि मैं किसको-किसको समझाकर कहूं कि ऐसी बातें नहीं हैं,
किंतु माया मनुष्य के मन की कल्पना ही है।
जीव
बिना जिव बाँचे नहीं, जिव का जीव
उधार।
जीव
दया करि पालिये, पंडित करो विचार॥
अर्थ व्याख्या: जीव के बिना जीव का कल्याण
नहीं होता। जीव ही जीव का सहारा बनता है। इसलिए हे पंडितों! इस बात पर विचार करो
और दया करके जीवों की रक्षा करो।
सब ते
साँचा भला, जो साँचा दिल होय।
साँच
बिना नाहिना, कोटि करे जो कोय॥
अर्थ व्याख्या: यदि
हम अपने हृदय में सत्य की प्रतिष्ठा कर सकें तो सत्य के समान संसार में अन्य कोई
उपलब्धि नहीं है। चाहे कोई करोड़ो उपाय करे, किंतु सत्य ज्ञान एवं सत्य आचरण के बिना सच्चा सुख नहीं मिल सकता।
जाके
मुनिवर तप करें, वेद थके गुण गाय।
सोई
देउँ सिखापना, कोई नहीं पतियाय॥
अर्थ व्याख्या: जिस
स्वरूपज्ञान, स्वरूपस्थिति एवं मोक्ष की
प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ मुनिजनों ने तप किया है, तथा जिसके
अनंत गुण गाने में वेद असमर्थ हो जाते हैं, मैं उसी की
शिक्षा देता हूं, परंतु कोई विश्वास नहीं करता।
ज्यों
मोदाद समसान शिल, सबै रूप समसान।
कहहिं
कबीर वह सावज की गति, तबकी देखि
भुकान॥
अर्थ व्याख्या: जैसे स्वच्छ कांच के समान
स्फटिक पत्थर होता है जिसे प्राप्त रंग के अनुसार प्रतीत होने के नाते समसान शिला
भी कहते हैं, वह सभी रूपों एवं रंगों को
ग्रहण करता है, वैसे मनुष्य का मन है। यह प्राप्त वृत्तियों
के रंग में रंगकर उस-उस के अनुसार बन जाता है। सद्गुरु कहते हैं कि जैसे कुत्ता
शीशमहल में अपने प्रतिबिंब देखकर और उन्हें अपना प्रतिद्वंदी मानकर उन्हें परास्त
करने के लिए भूंक-भूंककर मरता है, वैसे मनुष्य भ्रमवश अपनी
ही भावनाओं को सबमें प्रतिबिंबित करके राग-द्वेष में भूंक-भूंककर मरता है।
कलि
खोटा जग आँधरा, शब्द न माने कोय।
जाहि
कहौं हित आपना, सो उठि बैरी होय॥
अर्थ व्याख्या: कलह
एवं झगड़ा बुरी बात है। जगत के लोग विवेकहीन हैं, वे निर्णय-वचन नहीं मानते। मैं जिसको सजाति मानव-बंधु मानकर उसके ही
कल्याण के लिए उसे सही रास्ता बताता हूँ, वही उठकर शत्रु
बनने का प्रयास करता है।
मूढ़
कर्मिया मानवा, नख शिख पाखर आहि।
बाहनहारा
क्या करै,
जो बान न लागै ताहि॥
अर्थ व्याख्या: मूढ़ता
का आचरण करने वाले मनुष्य के तो एड़ी से चोटी तक मूर्खता की झूल पड़ी है,
फिर ज्ञानोपदेशरूपी बाण चलाने वाले उपदेशक संत-गुरु क्या करें जबकि
मूढ़ श्रोता को एक बाण भी नहीं लगता।
पर्वत
ऊपर हर बहै, घोड़ा चढ़ि बसै गाँव।
बिना
फूल भौंरा रस चाहै, कहु बिरवा को
नाँव॥
अर्थ व्याख्या: अपनी आत्मा को परम तत्व न
समझकर शब्द-जालों में पड़े हुए जो अलग परमात्मा या मोक्ष खोजते हैं,
वे मानो पत्थर पर हल चलाना चाहते हैं, घोड़े पर
चढ़कर उस पर गांव बसाना चाहता हैं और उनका मन-भौंरा बिना फूल के ही रस चाहता है।
कहो भला, कल्पना जो छोड़कर उस वृक्ष का नाम क्या हो सकता है!
ह्रदया
भीतर आरसी, मुख देखा नहिं जाय।
अर्थ व्याख्या: हर
मनुष्य के ह्रदय में विवेक का दर्पण है, परंतु वह उसमें अपना वास्तविक चेहरा नहीं देख पाता। वह अपने आप को उसमें
तभी देखेगा जब उसके मन का दो-तरफापन मिट जाएगा।
देश
विदेश हौं फिरा, मनहीं भरा सुकाल।
जाको
ढूँढ़त हौं फिरा, ताका परा दुकाल॥
अर्थ व्याख्या: मैं
देश-विदेश में घूमा तो पाया कि सर्वत्र मन की कल्पनाओं का सुराज है। मैं जिस सत्य
के पारखी को खोजता फिरता हूँ, उसका अभाव
है।
हीरा
परा बजार में, रहा छार लपटाय।
केतेहिं
मूरख पचि मुये, कोइ पारखि लिया उठाय॥
अर्थ व्याख्या: हीरा बाजार में पड़ा है और
उस पर धूल लिपट गई है। कितने मूर्ख मनुष्य उसकी खोज में दुखी होकर उसके आस-पास से
आते-जाते हैं और नहीं पहचान पाते। परंतु जो उसका पारखी है,
वह उसे पहचानकर उठा लेता है। अर्थात सत्य का हीरा हम लोगों के बीच
में ही है, परंतु उसे सब नहीं परख पाते, कोई पारखी परखकर ग्रहण करता है।
साखी
कहै गहै नहीं, चाल चली नहिं जाय।
सलिल
धार नदिया बहै, पाँव कहाँ ठहराय॥
अर्थ व्याख्या: लोग
साखी-शब्द या ज्ञान के वचन कहते हैं अथवा मैं साक्षी स्वरूप चेतन हूँ,
यह कहते हैं, परंतु इनके भाव हृदय में ग्रहण
नहीं करते और इन भावों के अनुसार आचरण नहीं करते। नदी में पानी की जोरदार धारा
बहती है, फिर वहां पैर कहां ठहरे, अर्थात
अन्त:करण में वासनाओं का जोर है फिर उसमें धैर्य कहाँ रहे।
लोगों
केरि अथाइया, मति कोइ पैठो धाय॥
एकै
खेत चरत है, बाघ गधेहरा गाय॥
अर्थ व्याख्या: जहां
निर्णय नहीं है ऐसी भीड़ में किसी सत्यइच्छुक जिज्ञासु को दौड़कर नहीं घुसना चाहिए।
वहां तो एक ही खेत में बाघ, गधा और गाय एक
साथ चरते हैं। अर्थात वहां सब धान साढ़े बाइस पसेरी है।
चलते-चलते
पगु थका,
नगर रहा नौ कोस।
बीचहि में
डेरा परा,
कहहु कौन को दोष॥
अर्थ व्याख्या: मानो कोई यात्री हो। वह
सुबह से चल रहा हो। चलते-चलते उसके पैर थक गए हों, अभी उसका मूल निवास स्थान नौ कोस की दूरी पर हो, इतने
में शाम आ गई हो। इसलिए बीच में ही उसका पड़ाव पड़ गया हो, तो
कहो इसमें किसका दोष है! वस्तुत: चलने वाले का दोष है जो सही रास्ते से न चलकर भटक
गया है। भटकने वाले का रास्ता लंबा हो ही जाता है।
इसी
प्रकार कर्म, उपासना, ज्ञान सभी मार्गों में चलते-चलते मनुष्य का जीवन थक जाता है और वह बूढ़ा हो
जाता है, परंतु आत्मस्थिति एवं स्वरूपस्थिति, चतुष्टय अंत:करण में संस्कारित पांचों विषयों की आसक्तिरूपी नौ कोस की
दूरी पर ही रह जाती है और मौत का समय आ जाता है। इसमें कहो भला किसका दोष है! दोष
चलने वाले का ही है, जो कल्याण का सही रास्ता न पकड़कर भूले
पथ में भटक गया है।
जाका
गुरु है आँधरा, चेला काह कराय।
अंधे
अंधा पेलिया, दोऊ कूप पराय॥
अर्थ व्याख्या: जिसका
गुरु ही जड़-चेतन एवं सार-असार के विवेक से रहित है, वह शिष्य बेचारा क्या करे! अंतत: गुरु-शिष्य दोनों विवेकहीन बने
अंध-परंपरा में एक दूसरे को ठेलते हुए अज्ञान एवं कल्पना के कुएं में पड़े रहते
हैं।
संशय
सब जग खंडिया, संशय खंडे न कोय।
संशय
खंडे सो जना, जो शब्द विवेकी होय॥
अर्थ व्याख्या: संदेह
और अनिश्चय ने संसार के सारे मनुष्यों के मन को उलझा दिया है;
किंतु संदेह एवं अनिश्चय का नाश किसी ने नहीं किया। इनका नाश वही
करता है, जो शब्दों का विवेकी होता है।
शब्द
हमारा आदि का, शब्दै पैठा जीव।
फूल
रहन की टोकरी, घोर खाया घीव॥
अर्थ व्याख्या: हमारे निर्णय शब्द जीव के
मूल स्वरूप के परिचायक हैं। परंतु जीव भ्रामक शब्दों में घुसा पड़ा है। मानव-शरीर
तो सार शब्द रूपी फूल रखने की टोकरी है। जैसे घी मट्ठा में पड़ा रहने से खराब हो
जाता है,
वैसे जीव भ्रामक शब्दों में पड़ा रहने से पतित हो जाता है।
बुन्द
जो परा समुद्र में, सो जानत सब
कोय।
समुद्र
समाना बुन्द में, सो जाने बिरला
कोय॥
अर्थ व्याख्या: बारिश में जो जल की बूंदें
समुद्र में पड़ती हैं, उन्हें सब
जानते हैं, परंतु सूर्य की गरमी और वायु के संपर्क से समुद्र
का जल वाष्परूप में उड़कर और बादल बनकर बूंद में समाया है इसे कोई बिरला जानता है।
जीव ब्रह्म में लीन होता है इसे बहुत लोग कहते हैं, परंतु
ब्रह्म जीव ही में लीन है, अर्थात ब्रह्मत्व, श्रेष्ठत्व जीव ही में निहित है, इस तथ्य को कोई
बिरला जानता है।
हीरों
की ओबरी नहीं, मलयागिरि नहिं पाँत।
सिंहों
के लेहँड़ा नहीं, साधु न चले जमात॥
अर्थ व्याख्या: उत्तम
हीरों से भरी कोठरी नहीं होती, पंक्ति की
पंक्ति मलयगिरि नहीं होते, सिंहों के झुंड नहीं होते और
पूर्णत्व प्राप्त संतों की भीड़ नहीं होती।
जैसी
गोली गुमज की, नीच परी ढहराय।
तैसा
हृदय मूरख का, शब्द नहीं ठहराय॥
अर्थ व्याख्या: मंदिर
के गोल गुंबद पर रखी गोली लुढ़ककर नीचे गिर पड़ती है। इसी प्रकार मूर्ख मनुष्य का
हृदय होता है, उसमें निर्णय शब्द नहीं
ठहरता।
प्रगट
कहौं तो मारिया, परदा लखै न कोय।
सहना
छिपा पयार तर, को कहि बैरी होय॥
अर्थ व्याख्या: यदि सत्य और असत्य को
खोलकर कहा जाए तो अंधविश्वास के पक्षधर लोग मारने दौड़ते हैं और यदि कोई आड़ लेकर
कहा जाए तो लोग भेद नहीं समझ पाते। चौकीदार पुवाल के नीचे छिपकर अन्न चुरा रहा है,
अर्थात् भ्रामक गुरु सारहीन वाणियों की आड़ लेकर लोगों को भटका रहे
हैं ऐसा कहकर कौन उनका वैरी बने!
ऊपर की
दोऊ गई,
हियहु की गई हेराय।
कहहिं
कबीर जाकी चारिउ गई, ताको काह उपाय॥
अर्थ व्याख्या: ऊपर के दोनों चर्मनेत्रों
से देखकर जो सत्यज्ञान एवं अच्छे आचरणों से नहीं चलता,
और जिसके हृदय के विवेक-विचार रूपी नेत्र भी फूट गए हैं, सद्गुरु कहते हैं कि इस प्रकार जिसके चारों नेत्र नहीं रह गए, उसके कल्याण का क्या उपाय है!
माया
केरी बसि परे, ब्रह्मा विष्णु महेश।
नारद
शारद सनक सनंदन, गौरी पूत गणेश॥
अर्थ व्याख्या: ब्रह्म,
विष्णु, महेश, नारद,
सरस्वती, सनक, सनंदन,
सनातन, सनत्कुमार तथा गौरी के पुत्र गणेश-सब
मायिक प्रकृति के अधीन हुए।
मन
मतंग गइयर हने, मनसा भई सचान।
जंत्र-मंत्र
माने नहीं, लागी उड़ि-उड़ि खान॥
अर्थ व्याख्या: मन उन्मत्त-हाथी के समान
है,
यह जीवरूपी महावत को मारता रहता है और इच्छाएं बाज-पक्षी के समान है,
वे उड़-उड़कर मनुष्य को खाती रहती हैं। इन पर यंत्र-मंत्र का प्रभाव
नहीं पड़ता।
करक
करेजे गड़ि रही, बचन वृक्ष की फाँस।
निकसाये
निकसे नहीं, रही सो काहू गाँस॥
अर्थ व्याख्या: वाणीरूपी
पेड़ के कांटे मनुष्यों के कलेजे में चुभ गए हैं। वे रुक-रूककर पीड़ा करते हैं। वे
किसी के निकालने पर भी नहीं निकलते। वे भावुकों के दिलों में चुभकर रूके हुए हैं।
हंसा
तू सुवर्ण वर्ण, क्या वर्णों मैं तोहिं।
तरिवर
पाय पहेलिहो, तबै सराहौं तोहिं॥
अर्थ व्याख्या: हे
चेतन! तू उत्तम ज्ञान-रंग है। मैं तेरी क्या प्रशंसा करूँ। मनुष्य-शरीर तो पाए हुए
हो,
परंतु जब अपने रहस्य को समझोगे, तभी मैं
तुम्हारी प्रशंसा करूँगा।
लोग
भरोसे कौन के, बैठ रहै अरगाय।
ऐसे
जियरहिं जम लूटे, जस मटिया लुटे
कसाय॥
अर्थ व्याख्या: संसार के लोग किस
देव-गोसैयां के भरोसे हाथ-पर-हाथ धरे एवं चुप्पी साधकर बैठे हैं! ऐसे आलसी
मनुष्यों को वासनाएं उसी प्रकार लूटती हैं जैसे कसाई मांस को।
साखी
पुरंदर ढहि परे, बिबि अक्षर युग चार।
कबीर
रसना रंभन होत है, कोइ कै न सकै
निरुवार॥
अर्थ व्याख्या: चारों युगों से अर्थात
बहुत काल से दो अक्षरों के जप से मोक्ष मनाने वाले उपासक तथा कर्मकांड से स्वर्ग
मानने वाले और उसे प्रमाणित करने वाले इंद्र अपनी वास्तविक स्थिति से फिसलकर नीचे
गिर गए हैं। सद्गुरु कहते हैं कि हर जगह प्राय: वाक्यजाल का विस्तार हो रहा है।
कोई सत्यासत्य निर्णय कर बंधनों को नहीं छुड़ाता।
मन भर
के बोइये,
घुँघुँची भर नहिं होय।
कहा
हमार माने नहीं, अंतहु चले बिगोय॥
अर्थ व्याख्या: सकाम
कर्मों के थोड़ा बीज बोने पर भी शरीर का निर्माण हो जाता है,
और शरीर का निर्माण होने के बाद मानो उसमें काल का डेरा पड़ जाता है।
रात और दिन बीतते हैं तथा शरीर क्षीण होता है। परंतु यदि कोई बहुत ज्यादा कर्म करे,
किंतु उसमें सकाम-भावना न हो तो वे ज्यादा कर्म भी जन्म के थोड़ा भी
कारण नहीं बनते। परंतु लोग मेरे विचारों पर ध्यान नहीं देते और सकाम कर्मों में
डूबकर अपने आप को जन्मादि चक्कर में डालकर नष्ट करते हैं।
बाजीगर
का बाँदरा, ऐसा जीव मन के साथ।
नाना
नाच नचाय के, ले राखे अपने हाथ॥
अर्थ व्याख्या: जैसे बाजीगर बंदर को नचाता
है और उससे नाना खेल कराकर उसे अपने हाथों में रखता है,वैसे ही मन जीव को नाना नाचों में नचाता है और सदैव अपने वश में रखता है।
बेड़ा
बाँधिन सर्प का, भवसागर के माँहिं।
जो छोड़े
तो बड़े,
गहै तो डँसे बाँहिं॥
अर्थ व्याख्या: कई
लोगों ने कई सांपो को एक में बांधकर उसका बेड़ा बनाया और उसी को पकड़कर समुद्र पार
करने लगे। अब यदि उस बेड़े को छोड़ते हैं तो समुद्र में डूबते हैं और यदि उसे पकड़े
रखते हैं तो वे बेड़े के सांप उनके हाथ काटते हैं और उन्हें विष से बेभान करते हैं।
ये अबोधमिश्रित ज्ञान,कर्मकांड एवं
देवी-देवादि की उपासनाएं सांपों के बेड़े हैं। मनुष्य इन्हीं द्वारा संसार-सागर से
पार होना चाहता है। यदि बिना स्वरूपज्ञान के इन्हें छोड़ता है, तो भोगवादी होकर संसार-सागर में एकदम डूब जाता है और यदि जीवनपर्यंत इन्हीं
में पड़ा रहता हौ, तो इनके विष से आक्रांत होता है। अतएव
पारखी-विवेकी का सत्संग करते हुए स्वरूपज्ञान पाकर इन्हें छोड़ना चाहिए।
अम्मृत
केरी पूरिया, बहु बिधि दीन्हा छोरि।
आप
सरीखा जो मिलै, ताहि पियावहु घोरि॥
अर्थ व्याख्या: सद्गुरु कहते हैं कि हे
विवेकियो! मैंने अविनाशी जीव के स्वरूपज्ञान और स्वरूपस्थिति की रहनी के उपदेश की
गठरी खोलकर रख दी है। अब तुम्हारे सरीखा सत्पात्र कोई मिले तो तुम भी उसको उसे
घोलकर पिलादेना।
जाना
नहीं बूझा नहीं, समुझि किया नहिं गौन।
अंधे
को अंधा मिला, राह बतावै कौन॥
अर्थ व्याख्या: जिस
प्रकार कोई मनुष्य अपने गंतव्य का रास्ता स्वयं न जानता हो और दूसरे जानकारों से
पूछा भी न हो, इस प्रकार बिना रास्ते को
समझे-बूझे उसने अपनी यात्रा आरंभ कर दी हो, वह आंख का अंधा
भी हो और संयोग से उसे रास्ते में अंधा व्यक्ति मिल जाए, तो
उसे सही रास्ता कौन बताएगा! इसी प्रकार जिसे स्वयं जड़-चेतन का ठीक बोध नहीं है और
वह किसी यथार्थ सद्गुरु की शरण में विनम्रतापूर्वक जाकर तथा उनकी सेवा- करके उनसे
पूछा भी नहीं है। इस प्रकार जो बिना परमार्थ को ठीक से समझे-बूझे चल दिया हो,
वह स्वयं तो अबोधी हैं ही, उसे रास्ते में
दूसरे भी अबोधी ही मिलते हैं, फिर कल्याण का रास्ता कौन
बताएगा।
अमृत
केरी मोटरी, शिर से धरी उतार।
जाहि
कहौं मैं एक है, सो मोहिं कहै दुइ चार॥
अर्थ व्याख्या: लोगों ने अमृत
की गठरी अपने सिर से उतारकर अलग रख दी है। अर्थात लोगों ने स्वरूपविचार और
इच्छात्याग की रहनी को तिलांजलि दे दी है। मैं जिससे कहता हूं कि एक जीव ही सत है,
अत: सारी इच्छाएं त्यागकर निजस्वरूप में स्थित होओ, वह मुझे दो-चार टेढ़ी-सीधी बातें सुनाने लगता है, अथवा
वह जीव के ऊपर दो-चार देवी-देवताओं की बातें करने लगता है।
चन्दन
बास निवारहु, तुझ कारण बन काटिया।
जियत
जीव जनि मारहू, मये सबै निपातिया॥
अर्थ व्याख्या: हे चेतन
मनुष्य! तू वासनाओं का त्याग कर। तेरे कल्याण के लिए मैंने भ्रांतियों का जंगल काट
दिया है। तपस्या के नाम पर जीते जी अपने को मत पीड़ित करो या उपवास करके आत्महत्या
मत करो। यदि शरीर को पीड़ित करने एवं आत्महत्या करने से मोक्ष होना माने,
तो शरीरांत में सब नष्ट हो जाते हैं, फिर तो
सबका मोक्ष होना सुकर हो जाना चाहिए।
भँवर
बिलंबे बाग में, बहु फूलन की बास।
ऐसे
जीव बिलंबे विषय में, अन्तहु चले
निरास॥
अर्थ व्याख्या: जैसे भौरे बाग
में बहुत फूलों की सुगंधी में भूल जाते हैं, वैसे जीव संसार के विषयों में आसक्त होकर अपने आप को भूल जाते हैं और अंत
में उन्हें निराश होकर इस संसार से चले जाना पड़ता है।
दर्पण
केरी गुफा में, स्वनहा पैठा धाय।
देखि
प्रतीमा आपनी, भूँकि-भूँकि मरि जाय॥
अर्थ व्याख्या: मानो एक
कुत्ता दौड़कर दर्पणों के किसी कक्ष में घुस गया और दर्पणों में अपने शरीर के
प्रतिबिंब देखकर तथा उन्हें अपने प्रतिद्वंदी एवं वैरी मानकर उनके विरोध में
भूंक-भूंककर मर गया। इसी प्रकार मनुष्य अपने मन की कलुषित भावनाओं की प्रतिछाया
दूसरे लोगों में आरोपित कर उनसे राग-द्वेष कर और लड़-झगड़कर अपने जीवन को बरबाद करता
है।
ये कबीर
तैं उतरि रहु, तेरो सम्मल परोहन साथ।
सम्मल
घटे न पगु थके, जीव बिराने हाथ॥
अर्थ व्याख्या: परंतु हे कबीर,
संसार के जीव अविवेकवश दूसरों के हाथों में पड़े हुए भटक रहे हैं।
अतएव तुम उनके उद्धार के लिए राम की ऊँची घाटी एवं समाधि-सुख छोड़कर लोगों के बीच
में उतर आओ। क्योंकि तुम्हारे पास विवेकज्ञान का शंबल है, पाथेय
है और स्वावलंबन तथा स्व-श्रम का परोहन है। वे तुम्हारे पास से घटने वाले नहीं है।
अतएव ऐसा करने से तुम्हारा कुछ बिगड़ेगा नही, किंतु भूले
जीवों का उद्धार होगा।
प्राणी
तो जिभ्या डिगा, छिन-छिन बोल कुबोल।
मन के
घाले भरमत फिरे, कालहिं देत हिंडोल॥
अर्थ व्याख्या: मनुष्य ने तो
अपनी वाणी को चंचल कर रखा है और वह क्षण-क्षण गलत बातें बोलता है। वह मन के चक्कर
में भटकता फिरता है। उसे कल्पनाएं नाना भ्रांतियों एवं राग-द्वेष,
हर्ष-शोकादि के झूले में झुला रही हैं।
बलिहारी
वह दूध की, जामें निकरे घीव।
आधी
साखी कबीर की, चारि वेद का जीव॥
अर्थ व्याख्या: उस दूध की
प्रशंसा की जाती है जिसमें अधिक मात्रा में घी निकलता है। इसी प्रकार उस वाणी की
प्रशंसा की जाती है जिसमें जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान होता है।
स्वरूपज्ञान-परिचायक कबीर की आधी साखी भी चारों वेदों का सारतत्व है।
साँचा
सौदा कीजिये, अपने मन में जानि।
साँचे
हीरा पाइये, झूठे मूलहु हानि॥
अर्थ व्याख्या: अपने मन में
जान-समझकर असली माल खरीदो और बेचो अर्थात सत्यज्ञान को लो और दो। सच्चे और निश्छल
मन वाले होकर ही सत्यज्ञान एवं कल्याण पाओगे। झूठ का आश्रय लेने से तो मूलधन की भी
हानि होगी। अर्थात असत्य बातों में पड़कर तो साधारण जीवन का सुख भी नष्ट हो जाएगा।
बिरह
भुवंगम पैठी के, कीन्ह करेजे घाव।
साधू
अंग न मोरिहैं, ज्यों भावै त्यों खाव॥
अर्थ व्याख्या: ईश्वर-वियोगजनित
सर्प ने उनके हृदय में घुसकर घाव बना दिया है। परंतु वे साधक विरह-सर्प से अपने
अंग नहीं बचाते, वह जैसा चाहे उन्हें खा ले।
पछापछी
के कारने,
सब जग रहा भुलान।
निर्पक्ष
होय के हरि भजै, सोई सन्त सुजान॥
अर्थ व्याख्या: मनुष्य किसी
मत में तो पक्षपात एवं मोह करके उसकी सड़ी-गली बातों से भी चिपका रहता है और अन्य
मतों से उदासीनता ही नहीं घृणा भी करने लगता है, इसलिए उनकी सच्ची बातों पर भी ध्यान नहीं देता। इसी राग-द्वेष के कारण
सारा संसार भटका हुआ है। सद्गुरु कहते हैं कि वही प्रबद्ध संत है जो निष्पक्ष होकर
हरि-भजन करता है।
ई माया
है चूहड़ी,
औ चूहड़ों की जोय।
बाप
पूत अरुझाय के, संग न काहु के होय॥
अर्थ व्याख्या: टट्टी साफ़ करने
वाले भंगी या भंगिनी नहीं हैं। वे तो पवित्र मानव हैं। भंगिनी तो यह माया है और यह
मलिन मनरूपी भंगी की जोरू है। यह जीव और मन को परस्पर उलझाकर किसी के साथ में नहीं
होती।
मलयागिर
की बास में, वृक्ष रहा सब गोय।
कहबे
को चंदन भया, मलयागिर ना होय॥
अर्थ व्याख्या: मलयगिरी की
सुगंधी में उसके आस-पास के सारे वृक्ष ओतप्रोत हो जाते हैं। वे कहने मात्र के लिए
चंदन बन जाते हैं, परंतु मलयगिरी
नहीं हो सकते। इसी प्रकार चेतन की चैतन्यवत प्रतीत होता है, परंतु
शरीर मूलत: चेतन नहीं हो सकता।
बन ते
भागि बेहड़े परा, करहा अपनी बान।
बेदन
करहा कासो कहै, को करहा को जान॥
अर्थ व्याख्या: खरगोश अन्य
हिंसक जंतुओं के डर से अपने दौड़ने के स्वभाववश भागकर एक उलझे हुए भयंकर स्थान में
जा गिरा। अब वह अपनी पीड़ा किससे कहे! उसके दर्द को अन्य कौन समझेगा! अभिप्राय है
कि मनुष्य गृहस्थी के बंधनों से भागकर साधु का वेष धारण किया और किसी सम्प्रदाय
में दीक्षित हो गया, परंतु अपने
फंसने के स्वभाववश वहां भी प्रपंच बनाकर उसमें बंध गया। अब वह अपने दुख को किससे
कहे, उसके कष्ट को कौन दूर करे!
माया
के झक जग जरे, कनक कामिनी लाग।
कहहिं
कबीर कस बाँचिहो, रुई लपेटी आग॥
अर्थ व्याख्या: संसार के लोग
अर्थ और काम-भोग में आसक्त होकर माया रूपी आग की लपट में जलते हैं। सद्गुरु कहते
हैं कि हे मनुष्य! तुम उसी प्रकार माया में आसक्त होकर जलने से बच नहीं सकते,जैसे आग में लिपटी हुई रुई नहीं बच सकती।
मूरख
के सिखलावते, ज्ञान गाँठि का जाय।
कोइला
होय न ऊजरा, जो सौ मन साबुन लाय॥
अर्थ व्याख्या: मूर्ख मनुष्य
को सीख देने पर उसके द्वारा उसका दुरूपयोग होने के कारण उपदेष्टा के हृदय की शांति
भंग होती है। मूर्ख उसी प्रकार हजारों उपदेश देने पर भी शुद्ध नहीं होता,
जिस प्रकार सौ मन साबुन लगाकर धोने पर भी कोयला उजला नहीं होता।
गुरु
की भेली जिव डरे, काया सींचनहार।
कुमति
कमाई मन बसे, लाग जुवा की
लार॥
कबीर
जात पुकारिया, चढ़ि चन्दन की डार।
बाट
लगाये ना लगे, पुनि का लेत हमार॥
अर्थ व्याख्या: कबीर साहेब
कहते हैं कि मैं अपने मानवीय सद्गुण एवं आत्मस्वरूप की स्थिति में आरूढ़ होकर संसार
के लिए भी सन्मार्ग बताए जा रहा हूं। यदि संसार के लोग बताए हुए सन्मार्ग पर नहीं
लगेंगे तो हमारा क्या नुकसान करेंगे, अपना ही अहित करेंगे।
सेमर
केरा सूवना, छिलवे बैठा जाय।
चोंच
सँवारे सिर धुनै, ई उसही को भाय॥
अर्थ व्याख्या: सेमल-वृक्ष पर
रहने वाला सुग्गा उड़कर पलास के वृक्ष पर जा बैठा। उसके फल में भी चोंच मारने पर जब
उसकी सारहीनता प्रतीत हुई तो सिर पटककर पश्च्याताप करने लगा और सोचने लगा कि यह भी
सेमल का भाई-बिरादर है।
बहुत
दिवस ते हींड़िया, शून्य समाधि
लगाय।
करहा पड़ा
गाड़ में,
दूरि परा पछिताय॥
अर्थ व्याख्या: हठयोगी आदि
अनेक साधक शून्य में समाधि लगाकर बहुत दिनों तक ब्रह्म को खोजते रहे,
परंतु वह न मिला। इनकी दशा वैसे हुई जैसे खरगोश अपने निवास स्थान से
दूर किसी कंटीले तथा झाड़दार गहरे गड्डे में पड़ा पश्च्याताप कर रहा हो।
मानुष
ह्वै के ना मुवा, मुवा सो डाँगर
ढोर।
एकौ
जीव ठौर नहिं लागा, भया सो हाथी
घोर॥
अर्थ व्याख्या: मनुष्य ने
मानवीय-बुद्धि एवं मानवता के आचरण धारण करके जीवन नहीं बिताया,
किंतु पशु-बुद्धि एवं पशु-आचरण करके मरा। इसलिए ऐसे में से एक जीव
भी अपनी आत्मस्थिति एवं निजस्वरूप की स्थिति न पा सका, बल्कि
हाथी-घोड़े आदि पशु खानियों में गया।
अथवा ''मानुष ह्वै के ना मुवा'' जो व्यक्ति मानवीय बुद्धि
एवं मानवीय आचरण धारण किया, वह मरा नहीं, किंतु अमरत्व को पा गया। मरता तो वह है जो पशुबुद्धि वाला देहाभिमानी है!
ऐसे जीव स्वरूपस्थिति न पाकर हाथी-घोड़े आदि पशु होते हैं।
ई मन
चंचल ई मन चोर, ई मन शुद्ध ठगहार।
मन-मन
करते सुर-नर मुनि जहँड़े, मन के लक्ष
दुवार॥
अर्थ व्याख्या: यह मन चंचल है,
यह मन चोर है और यह मन केवल ठगहार है। मन पर विचार और चर्चा करते-करते
देवता, मनुष्य और मुनि लोग भी मन ही की धारा में बह गए;
क्योंकि मन को निकल भागने के लिए लाखों दरवाजे हैं।
जाग्रत
रूपी जीव है, शब्द सोहागा सेत।
जर्द
बुन्द जल कूकुही, कहहिं कबीर कोई
देख॥
अर्थ व्याख्या: जीव ज्ञान का
रंग का है, परंतु भ्रांति एवं
विषय-वासनापूर्ण शब्दरूपी सुहागा पाकर यह स्वर्णमय चेतन जीव अपने पद से पिघलकर
जड़-बुद्धि का हो गया है। अतएव यह कर्म-वासनावश पिता के वीर्य एवं माता के रज में
मिलकर जल बुदबुदारूप शरीर को धारण करता है। सद्गुरु कबीर कहते हैं कि इस प्रकार
कोई बिरला ही समझता है।
चक्की
चलती देख के, मेरे नैनन आया रोय।
दुइ
पाट भीतर आय के, साबुत गया न कोय॥
अर्थ व्याख्या: संसार की
चक्की चलती देखकर मेरे नेत्रों से रुलाई आ गई। दो पाटों के बीच आकर कोई बेदाग नहीं
गया।
साहेब
साहेब सब कहैं, मोहिं अंदेशा और।
साहेब
से परिचय नहीं, बैठोगे केहि ठौर॥
अर्थ व्याख्या: संसार के
प्राय: सब लोग साहेब-साहेब कहते रहते हैं, परंतु मुझे तो और ही चिंता है कि इन लोगों को सच्चे साहेब से तो परिचय
नहीं है, फिर ये किस स्थान पर बैठेंगे, इनकी स्थिति कहाँ होगी!
मन
गयंद माने नहीं, चले सुरति के साथ।
महावत
बिचारा क्या करे, जो अंकुश नांही
हाथ॥
अर्थ व्याख्या: मनरूपी
उन्मत्त हाथी नियन्त्रण नहीं मानता, वह तो विषयों की याद के साथ चलता है। जीव रूपी महावत बेचारा क्या करे जब
उसके हाथ में विवेक का अंकुश नहीं है।
समुझे
की गति एक है, जिन्ह समुझा सब ठौर।
कहिं
कबीर ये बीच के, बलकहिं और की और॥
अर्थ व्याख्या: जिन्होंने
जड़-चेतन की समस्त स्थितियों, गुण-धर्मों
एवं जड़ से सर्वथा भिन्न अपने चेतन स्वरूप को समझ लिया है और समझकर चिर विश्राम पा
लिया है, उन सब ज्ञानियों के एक ज्ञान, एक आचरण, एक स्थिति एवं एक समान मोक्षावस्था होती
है। सद्गुरु कहते हैं कि अधकचरे-अधूरे लोग ही अन्य-का-अन्य बकते हैं।
बेह्या
दीन्हों खेत को, बेह्या खेतहिं खाय।
तीन
लोक संशय परी, मैं काहि कहौं समुझाय॥
अर्थ व्याख्या: बाड़ फसल की
रक्षा के लिए लगाई जाती है, परंतु दुख की
बात है कि यहां बाड़ ही फसल को खा रही है, अर्थात मनुष्य माया
का फैलाव अपने सुख के लिए करता है, परंतु उसकी फैलाई हुई
माया ही उसे दुख देती है। मैं किसको-किसको समझाऊं, सारे
संसार में यह भ्रम है कि माया जीव को सुख देती है।
मानुष
जन्म नर पायके, चूके अबकी घात।
जाय
परे भवचक्र में, सहे घनेरी लात॥
अर्थ व्याख्या: जीव ने
विवेक-प्रधान मानव-जन्म को पाकर भी यदि ऐसे सुनहले अवसर में स्वरूपज्ञान एवं
स्वरूपस्थिति का काम नहीं किया और इस महत्त्वपूर्ण अवसर को व्यर्थ खो दिया तो वह
जाकर पुन: जन्म-मरण के चक्कर में पड़कर असीमित दुख भोगता रहेगा।
जहर
जिमी दै रोपिया, अमी सींचे सौ बार।
कबीर
खलक ना तजै, जामें जौन विचार॥
अर्थ व्याख्या: यदि जमीन में
जहर का पेड़ लगा दिया गया है तो उसे सौ बार भी अमृत से सींचने पर उसका जहर नहीं जा
सकता। सद्गुरु कहते हैं कि इसी प्रकार जिसके मन में जो उलटे-सीधे विचार धंस जाते
हैं,
वे उसे नहीं निकालते, चाहे उन्हें सैकड़ों बार
सत्योपदेश दिए जाएं।
गाँव
ऊँचे पहाड़ पर, औ मोटा की बाँह।
कबीर
अस ठाकुर सेइये, उबरिये जाकी छाँह॥
अर्थ व्याख्या: जीव की स्थिति
उच्च चैतन्य शिखर पर है। हे मनुष्य! तुम उन श्रेष्ठ संत एवं सद्गुरु का सहारा लो
और उनकी सेवा करो जिनकी शरण से तुम्हारा संसार-सागर से उद्धार हो।
रतन का
जतन करु,
माँड़ी का सिंगार।
आया
कबीरा फिर गया, झूठा है हंकार॥
अर्थ व्याख्या: मानव-शरीररूपी
रत्न को अच्छे उपाय से रखो, अथवा महान-रत्न
अपने जीव को, अपनी चेतना-आत्मा को सम्हालकर रखो। जिस माया के
श्रृंगार एवं चटक-मटक में तुम भूलते हो, वह पसेव चढ़े हुए
चिकने कपड़े या सजे हुए बाजार के समान दिखाऊ एवं क्षणभंगुर है। सद्गुरु कहते हैं कि
जीव संसार में आते हैं और फिर थोड़े दिनों में लौट जाते हैं, इसलिए
यहां का अहंकार मिथ्या है।
मानुष
तैं बड़ पापिया, अक्षर गुरुहि न मान।
बार-बार
बन कूकुही, गर्भ धरे और ध्यान॥
अर्थ व्याख्या: हे भूला मानव!
तू बड़ा पापी है जो गुरु के दिए हुए अविनाशी स्वरूप के उपदेश को नहीं मानता और
नाशवान देहादि में पचता है। जैसे बनमुरगी बारम्बार गर्भ धारणकर अंडे देती है और
उन्हीं के सेने में ध्यान रखती है, वैसे तू भी देह, गेह परिवार आदि का अहंकार कर उन्ही
की सुरक्षा में सदैव ध्यान रखता है और अविनाशी निर्भय स्थिति से दूर रहता है।
तीन
लोक चोरी भई, सबका सरबस लीन्ह।
बिना
मूड़ का चोरवा, परा न काहू चीन्ह॥
अर्थ व्याख्या: तीनों गुणों
में आसक्त जीवों के हृदय में चोरी हो गई, और मन रूपी चोर ने सबका सर्वस्व चुरा लिया। वह चोर बिना सिर का है,
इसलिए उसे कोई पहचान नहीं पाया।
मानुष
बिचारा क्या करे, जाके कहै न
खुलै कपाट।
स्वनहा
चौक बैठाय के, फिर-फिर ऐपन चाट॥
अर्थ व्याख्या: बेचारे
विवेकवान,
सत्योपदेश देकर क्या करें जब उनके कहने पर भी संसारियों का
हृदय-कपाट नहीं खुलता। जैसे किसी ने पूजा के समय वेदी पर कुत्ता को बैठा दिया और
वह अपने स्वभाववश बारम्बार मांगलिक पदार्थों को चाटकर उसे अशुद्ध करता रहा,
वैसे मनुष्य का लोलुप मन बारम्बार विषयों में डूबकर गुरु के
सत्योपदेश पर पानी फेरता रहता है।
काला
सर्प शरीर में, खाइनि सब जग झारि।
बिरले
ते जन बाँचि हैं, जो रामहि भजे
बिचारि॥
अर्थ व्याख्या: कामरूपी काला
सर्प सबके हृदय में बसता है। उसने संसार के सभी लोगों को निपट खा लिया है। उससे
वही बिरला बचता है, जो विचारपूर्वक
राम का भजन करता है।
यहाँ ई
सम्मल करिले, आगे विषई बाट।
स्वर्ग
बिसाहन सब चले, जहाँ बनियाँ न हाट॥
अर्थ व्याख्या: वर्तमान
स्वस्थ नरजन्म में अपनी कल्याण-साधना कर लो। इसके अतिरिक्त पशु आदि योनियों में तो
केवल विषयों का मार्ग है। सब जीव स्वर्ग में कल्याण-सौदा खरीदने चले,
जहाँ न वणिक हैं, न बाज़ार। अर्थात् जहाँ न
सद्गुरु हैं, न सत्संग।
एक
शब्द गुरुदेव का, ताका अनंत
विचार।
थाके
मुनिजन पंडिता, बेद न पावैं पार॥
अर्थ व्याख्या: 'मोक्ष' गुरुदेव के इस एक शब्द पर मनीषियों ने असंख्य
विचार किए हैं। मुनिजन तथा विद्वानजन विचार करके थक गए हैं। वेदों ने इसका पार
नहीं पाया है।
शब्द-शब्द
सब कोई कहैं, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या
पर आवै नहीं, निरखि परखि करि लेह॥
अर्थ व्याख्या: सभी मतवादी
शब्द-ही-शब्द को अपना उपास्य एवं लक्ष्य कहते हैं, परंतु व्यक्ति का जो उपासनीय एवं लक्ष्य है वह तो शब्द के जालों से सर्वथा
रहित शुद्ध चेतन है। वह जीभ पर आने की वस्तु नहीं है। उसकी केवल निरख-परख करो।
बड़े
गये बड़ापने, रोम-रोम हंकार।
सतगुरु
के परचै बिना, चारों बरन चमार॥
अर्थ व्याख्या: कितने बड़े
कहलाने वाले अपने मिथ्या बड़प्पन के मद में नीचे गिर गए,
क्योंकि उनके रोयें-रोयें में अहंकार भरा था। सद्गुरु के द्वारा
स्वरूपज्ञान पाए बिना दैहिक बुद्धि रखने वाले चारों वर्ण के लोग चमार हैं,क्योंकि उनकी समझ चाम की देह तक है।
शब्द
बिना सुरति आँधरी, कहो कहाँ को
जाय।
द्वार
न पावै शब्द का, फिर-फिर भटका खाय॥
अर्थ व्याख्या: निर्णय-वचनों
को न पाने से मनुष्य का मन विवेकहीन होकर अंधा हो गया है। कहो भला,
वह कहाँ जाएगा? वह शब्दों का द्वार गुरुमुख
निर्णय वचन न पाने से बारंबार कल्पित शब्दों के भंवरजाल में भटका खाता है।
विष के
बिरवे घर किया, सर्प रहा लपटाय।
ताते
जियरहिं डर भया, जागत रैनि बिहाय॥
अर्थ व्याख्या: किसी ने जहर
के पेड़ पर अपना निवास स्थान बनाया, जिसमें सांप लिपटे हैं। इसलिए उसके जी में भय समाया है और वह भय में ही
रात और दिन बिता रहा है। अर्थात अहंकार-सर्प से लिपटे हुए विषयों में जीव आसक्त
है। इसलिए उसके रात-दिन भय में बीत रहे हैं।
मैं
रोवों यह जगत को, मोको रोवे न
कोय।
मोको
रोवे सो जना, जो शब्द विवेकी होय॥
अर्थ व्याख्या: मैं जगत के
जीवों को दुखी देखकर उनके दुखों से स्वयं दुखी होकर उन्हें सन्मार्ग बताता हूँ,
परंतु वे आर्त होकर उत्साहपूर्वक मेरी बातों पर ध्यान नहीं देते।
मेरी बातों पर वही ध्यान देता है जो शब्दों का विवेकी है।
काटे
आम न मौरसी, फाटे जुटै न
कान।
गोरख
पारस परसे बिना, कौने को नुकसान॥
माया
जग साँपिनि भई, विष ले पैठि पताल।
सब जग
फंदे फंदिया, चले कबीरू काछ॥
अर्थ व्याख्या: संसार में
माया भयंकर सर्पिणी हो गई है जो विषयासक्ति रूपी विष को लेकर मनुष्य के हृदय में
पैठ गई है। संसार के सारे लोग इस बंधन में बंध गए हैं,
परंतु कबीर इससे अपने आप को बचाकर अलग हो गए।
एक ते
अनंत भौ,
अनंत एक ह्वै आय।
परिचय
भई जब एकते, तब अनंतों एकै माहि समाय॥
अर्थ व्याख्या: एक मनुष्य
शरीर ही कर्मभूमि है। इसी में जीव असंख्य कर्म करता है जिनके फलस्वरूप वह असंख्य
योनियों में भटकता है। परंतु असंख्य योनियों में से भटककर जीव पुन: मनुष्य शरीर
में आता है ''भूलि भटक नर फिर घट आया।''
जब उसे इस एक मनुष्य शरीर में स्वरूप की परख हो जाती है तब असंख्य
कर्मसंस्कार तथा नाना योनियों के अध्यास यहां नष्ट हो जाते हैं और जीव मुक्त हो
जाता है। अथवा एक जीव से ही सारे ज्ञान-विज्ञान पैदा होते हैं। अत: जब निज स्वरूप
से परिचय हो जाता है तब सारे ज्ञान-विज्ञान अपने में समाए हुए लगते हैं।
सुकृत
बचन माने नहीं, आपु न करे विचार।
कहहिं कबीर पुकारि के, सपनेहु गया संसार॥
अर्थ व्याख्या: लोग संतो के
पवित्र एवं सत्य वचनों को मानते नहीं और स्वयं भी विचारकर सत्यज्ञान एवं सत्य आचरण
ग्रहण करते नहीं। कबीर साहेब लोगों को बलपूर्वक पुकारकर कहते हैं कि संसार के लोग
अपने जीवन को स्वपन के समान व्यर्थ खोकर चले गए और चले जा रहे हैं।
मानुष
बिचारा क्या करे, जाके शून्य
शरीर।
जो जिव
झाँकि न ऊपजे, तो कहा पुकार कबीर॥
अर्थ व्याख्या: विवेकवान
उपदेशक बेचारे उपदेश देकर उसे क्या लाभ पहुंचा सकते हैं जिसका हृदय श्रद्धाभाव से
रहित है। सद्गुरु कहते हैं कि उसे पुकारकर क्या बुलाया जाए जिसे साथ में आने का
उत्साह नहीं है! अर्थात जिसके दिल में स्वरूप-साक्षात्कार एवं आत्मकल्याण का प्रेम
नहीं जगता, उसको उपदेश देकर क्या लाभ!
पाँच
तत्त्व का पूतरा, मानुष धरिया
नाँव।
एक कला
के बीछुरे, बिकल होत सब ठाँव॥
अर्थ व्याख्या: पाँच तत्व के
पुतले इस शरीर को धारण करने से जीव का नाम मनुष्य रखा गया। परंतु एक सद्बुद्धि के
बिना यह सब जगह पीड़ित रहता है।
तीन
लोक टीड़ी भया, उड़ा जो मन के साथ।
हरिजन
हरि जाने बिना, परे काल के हाथ॥
अर्थ व्याख्या: जैसे टिड्डी
कीड़े हवा के साथ उड़कर यत्र-तत्र नष्ट हो जाते हैं, वैसे त्रिगुणी मनुष्य मन की कल्पनाओं के साथ उड़कर जहां-तहां पतित हो जाते
हैं। हरी-भक्त हरि का रहस्य न समझकर मन की कल्पनाओं के फंदे में फंस गए।
हीरा
सोइ सराहिये, सहै घनन की चोट।
कपट
कुरंगी मानवा, परखत निकरा खोट॥
अर्थ व्याख्या: हीरा वही
प्रशंसनीय है जो घनों की चोट सहन कर ले और न टूटे। इसी प्रकार बात,
सिद्धांत एवं मनुष्य वे ही प्रशंसनीय हैं जो तर्कों तथा द्वंदों में
न टूटें। परंतु कपट और कुभावनाओं से भरे मनुष्यों पर, परख की
कसौटी लगाते ही वे खोटे निकलते हैं।
सेमर
सुवना बेगि तजु, तेरी घनी बिगुर्ची पाँख।
ऐसा
सेमर जो सेवै, जाके हृदया नाहीं आँख॥
अर्थ व्याख्या: हे सुग्गे!
सारहीन फल वाले सेमल के पेड़ को शीघ्र छोड़ दे। सेमल की रुई में तेरे पंख बहुत उलझ
गए हैं। ऐसे नीरस सेमल-फल का सेवन वही करता है जिसके हृदय में विवेक की आंखें नहीं
होतीं।
मूल
गहे ते काम है, मैं मत भरम भुलाव।
मन
सायर मनसा लहरि, बहै कतहुँ मत जाव॥
अर्थ व्याख्या: निजस्वरूप का
बोध एवं स्थिति ग्रहण करने से ही कल्याण है। हे मानव! तू नाना वाणियों एवं
मान्यताओं के भ्रम में पड़कर अपने स्वरूप को मत भूल। मन समुद्र है और उसकी इच्छाएं
तरंगें हैं, उनमें बहकर कहीं मत जा।
रंगहि
ते रंग ऊपजे, सब रंग देखा एक।
कौन
रंग है जीव का, ताका करहु विवेक॥
अर्थ व्याख्या: रंगों से ही
अन्य रंगों की उत्पत्ति होती है। अंत में देखा गया, तो सब रंग एक-जड़ है। जीव का रंग कौन-सा है इसका विवेक करो।
तामस
केरे तीन गुण, भँवर लेइ तहाँ बास।
एकै
डारी तीन फल, भाँटा ऊख कपास॥
अर्थ व्याख्या: तम: प्रधान
माया के सत, रज तथा तम तीन गुण हैं।
इन्हीं में वासनावशी जीव आसक्त हैं। एक ही डाली में भांटा, ऊख
और कपास फले हों तो यह अद्भुत घटना होगी। माया एवं प्रकृति में यही घटना घटी है।
यहां सत, रज और तम एक ही प्रकृति में विद्यमान हैं।
मन
माया तो एक है, माया मनहिं समाय।
तीन
लोक संशय परी, मैं काहि कहौं समुझाय॥
अर्थ व्याख्या: जल-तरंग न्याय
मन और माया एक ही है। माया मन में ही लीन है। परंतु संसार के लोगों के हृदय में यह
भ्रम है कि माया मनुष्य के मन से अलग एक निरपेक्ष तत्त्व है जो किसी ईश्वर या
ब्रह्म से चालित है और उसके द्वारा वह जीवों पर दौड़ा दी जाती है। सद्गुरु कहते हैं
कि मैं किसको-किसको समझाकर कहूं कि ऐसी बातें नहीं हैं,
किंतु माया मनुष्य के मन की कल्पना ही है।
जीव
बिना जिव बाँचे नहीं, जिव का जीव
उधार।
जीव
दया करि पालिये, पंडित करो विचार॥
अर्थ व्याख्या: जीव के बिना
जीव का कल्याण नहीं होता। जीव ही जीव का सहारा बनता है। इसलिए हे पंडितों! इस बात
पर विचार करो और दया करके जीवों की रक्षा करो।
सब ते
साँचा भला, जो साँचा दिल होय।
साँच
बिना नाहिना, कोटि करे जो कोय॥
अर्थ व्याख्या: यदि हम अपने
हृदय में सत्य की प्रतिष्ठा कर सकें तो सत्य के समान संसार में अन्य कोई उपलब्धि
नहीं है। चाहे कोई करोड़ो उपाय करे, किंतु सत्य ज्ञान एवं सत्य आचरण के बिना सच्चा सुख नहीं मिल सकता।
शब्दै
मारा गिर परा, शब्दै छोड़ा राज।
जिन्ह-जिन्ह
शब्द विवेकिया, तिनका सरिगौ काज॥
अर्थ व्याख्या: विषयासक्तिपूर्ण
एवं भ्रामक शब्दों ने ऐसी चोट मारी कि उनसे घायल होकर कितने मनुष्य अपनी मानवता
एवं कल्याणपद से पतित हो गए। परंतु एक विवेक-वैराग्यपूर्ण शब्द सुनकर,
राज्य तक की आसक्ति त्यागकर सुज्ञजन विरक्त हो जाते हैं, अतएव जिन-जिन लोगों ने सत-असत शब्दों का विवेक कर सत्य का ग्रहण और असत्य
का त्याग किया, उनका कल्याण बन गया।
जोबन
सायर मूझते, रसिया लाल कराय।
अब
कबीर पाँजी परे, पन्थी आवहिं जाय॥
अर्थ व्याख्या: संसार में जो
वाणी का वन एवं वाणी का समुद्र है वह मुझ-जैसे मनुष्यों से ही पैदा हुआ है। वाणी
के रसिक लोग उसे लाल-मणि मानकर बिना विचार किए सांच-झूठ सभी वाणियों को प्रमाण रूप
मानने लगते हैं। किसी वाणी के बन जाने के बाद लोगों के लिए वही रास्ता बन जाती है
और पथिक लोग उसी के आधार पर जीवन-यात्रा करने लगते हैं प्राय: विचार नहीं करते।
मूरख
सों क्या बोलिये, शठ सों काह
बसाय।
पहन
में क्या मारिये, जो चोखा तीर
नसाय॥
अर्थ व्याख्या: मूर्ख से बात
करके क्या फल होगा तथा शठ से अपना क्या वश चलेगा! चोखा तीर भी पत्थर में मारने से
क्या प्रयोजन हल होगा! पत्थर तो टूटेगा नहीं, तीर ही टूट जाएगा। इसी प्रकार उत्तम उपदेश भी अपात्र का तो कोई लाभ नहीं
कर सकेगा, स्वयं व्यर्थ जाएगा।
ताकी
पूरी क्यों परे, जाके गुरु न लाखई बाट।
ताके
बेड़ा बूड़ि हैं, फिरि-फिरि औघट घाट॥
अर्थ व्याख्या: उस मनुष्य का
कल्याण कैसे होगा जिसको सद्गुरु ने सत्य का रास्ता नहीं बताया है। उसकी नाव तो
बारम्बार कुघाट में डूबेगी। वह उत्तरोत्तर पतनपथ में जाएगा।
भँवरजाल बगुजाल है, बूड़े बहुत अचेत।
कहहिं
कबीर ते बाँचि हैं, जाके हृदय
विवेक॥
अर्थ व्याख्या: मोटी माया तथा
झीनी माया के दो बहुत बड़े जाल हैं, इनमें बहुत-से लोग फंस जाते हैं। सद्गुरु कहते हैं कि इनसे वही बचेगा
जिसके हृदय में विवेक होगा।
शब्द-शब्द
बहु अन्तरे, सार शब्द मथि लीजै।
कहहिं
कबीर जहाँ सार शब्द नहिं, धृग जीवन सो
जीजै॥
अर्थ व्याख्या: शब्द-शब्द में
बड़ा भेद होता है। अतएव विवेक की मथानी से मथकर सार शब्दों को निकाल लो। सद्गुरु
कहते हैं कि जिस मनुष्य में सार शब्दों का विचार और आदर नहीं है,
वह व्यर्थ ही जीवन जी रहा है।
कोठी
तो है काठ की, ढिग-ढिग दीन्हीं आग।
पण्डित
जरि झोली भये, साकत उबरे भाग॥
अर्थ व्याख्या: लकड़ी का मकान
हो,
उसमें जगह-जगह आग सुलगा दी गई हो और उसमें जोरों से आग लग गई हो।
उसमें पंडित तथा अशिक्षित दोनों रहते हों, तुम्हें आश्चर्य
होगा कि पंडित तो जलकर राख हो गए और अशिक्षित भागकर बच गए। यह शरीर तथा संसार काठ
की कोठी है। इसमें विषय-वासना एवं शिक्षित कहलाने वाले लोग अपने ज्ञान के मद में
पड़कर इस आग में जलकर मरते हैं और सरल-हृदय अशिक्षित लोग इससे भागकर बच जाते हैं।
हीरा
तहाँ न खोलिये, जहँ कुँजरों की हाट।
सहजै
गाँठी बाँधि के, लगिये अपनी बाट॥
अर्थ व्याख्या: हीरे की दुकान
वहां नहीं लगाना चाहिए जहां साग-पात बेचने वाले कुंजड़ों का बाजार हो। वहां से तो
हीरे को धीरे से गांठ में बांध कर अपना मार्ग पकड़ना चाहिए। अर्थात अपात्रों के
सामने ज्ञान की बातें करना निरर्थक है।
जिभ्या
केरे बन्द दे, बहु बोलन निरूवार।
पारखी
से संग करू, गुरुमुख शब्द विचार॥
अर्थ व्याख्या: अनावश्यक
बोलना छोड़कर वाणी पर संयम करो, सारासार
के निष्पक्ष पारखी संतों की संगत करो और निर्णय वचनों पर विचार करो।
तन
संशय मन सोनहा, काल अहेरी नीत।
एकै
डाँग बसेरवा, कुशल पूछो का मीत॥
अर्थ व्याख्या: शशा,
कुत्ता और शिकारी एक ही जगह पर हों, तो शशा का
कुशल कहां! शरीर संशय का घर है, मन कुत्ता है और अज्ञान
शिकारी है। ये एक ही जगह पर नित्य रहते हैं, फिर हे मित्र!
कुशल क्या पूछते हो!
हंस
बकु देखा एक रंग, चरें हरियरे
ताल।
हंस
क्षीर ते जानिये, बकुहिं धरेंगे
काल॥
अर्थ व्याख्या: देखा कि हंस
और बगुले एक ही उज्ज्वल रंग में हैं, और हरे-भरे ताल में चर रहे हैं। परंतु हंस की पहचान उसके नीर-क्षीर विवेक
में होती है, और बगुले की पहचान उसकी क्रूरता में होती है।
समुझि
बूझि जड़ हो रहै, बल तजि निर्बल होय।
कहहिं
कबीर ता संत का, पला न पकरै कोय॥
अर्थ व्याख्या: विवेकवान
पुरुष सत्य को भली-भांति समझ-बूझकर भोले-भाले बन जाते हैं और संपूर्ण अहंकार को
छोड़कर निर्मानी हो जाते हैं। सद्गुरु कहते हैं कि ऐसे निर्मल संत का कोई पल्ला
नहीं पकड़ सकता अर्थात उन्हें कोई प्रपंची नहीं बना सकता।
कहन्ता
तो बहुते मिला, गहन्ता मिला न कोय।
सो
कहन्ता बहि जान दे, जो न गहन्ता
होय॥
अर्थ व्याख्या: ज्ञान का कथन
करने वाले तो बहुत मिलते हैं, परंतु
उसका भाव एवं आचरण ग्रहण करने वाले बहुत कम मिलते हैं। जो ज्ञान का भाव एवं आचरण
नहीं ग्रहण करता, उसे भटकने दो, उसके
पीछे मत लगो।
गृह
तजि के भये उदासी, बन खण्ड तप को
जाय।
चोली
थाकी मारिया, बेरई चुनि-चुनि खाय॥
अर्थ व्याख्या: कितने लोग
भावुकता में पड़कर और घर छोड़कर वैरागी हो जाते हैं तथा जंगलों में तपस्या करने चले
जाते हैं। जब उनकी भावना का जोश उतरता है, भूख लगती है, काया निर्बल होती है, तब वे बेर-जैसे साधारण फल भी चुन-चुन कर खाते हैं और अपना पेट भरते हैं।
केते
दिन ऐसे गये, अनरूचे का नेह।
ऊषर
बोय न ऊपजै, जो अति घन बरसे मेह॥
अर्थ व्याख्या: उपदेशक के
कितने ही दिन अश्रद्धालु व्यक्ति से प्रेम करने तथा उसे उपदेश देने के चक्कर में
व्यर्थ चले जाते हैं। बादल चाहे अत्यंत बारिश करके झड़ी कर दें,
परंतु ऊसर जमीन में बीज बोने से उसमें कुछ उत्पन्न नहीं होता।
बाँह
मरोरे जात हो, मोहि सोवत लिये जगाय।
कहहिं
कबीर पुकारि के, ई पिंडे होहु कि जाय॥
अर्थ व्याख्या: शिष्य कहता है
कि हे सद्गुरु! आपने मुझे सोये हुए से जगा लिया है और मैंने आपकी बांह पकड़ ली है।
परंतु आप मुझसे अपनी बांह छुड़ाकर और मुझसे विरत होकर अपनी असंग स्थिति में जा रहे
हैं,
फिर मेरा उद्धार कैसे होगा? सद्गुरु ने मानो
शिष्य से दूर जाते हुए पुकारकर उसे बता दिया हो कि हे शिष्य! तू इसी शरीर में रहते
हुए अपने चेतनस्वरूप में स्थित हो, अन्यथा भ्रम में तेरा समय
बीत जाएगा।
फहम
आगे फहम पाछे, फहम दाहिने डेरि।
फहम पर
जो फहम करै, सो फहम है मेरि॥
अर्थ व्याख्या: जो व्यक्ति
आगे,
पीछे, दाहिने तथा बाएँ समझ और सावधानी का
प्रयोग करता है तथा सावधानी पर सावधानी बरतता है, वह मानो
मेरी तरह सावधान रहता है।
साहु
चोर चीन्है नहीं, अँधा मति का
हीन।
पारख
बिना बिनास है, कर बिचार होहु भीन॥
अर्थ व्याख्या: विवेकहीन अंधा
मनुष्य यह नहीं पहचानता कि सच्चा सद्गुरु कौन है तथा भटकाने वाला धूर्त गुरुआ कौन
है। सारासार न परखने से ही मनुष्य पतनपथ में जाता है। अतएव हे जिज्ञासु! विचार
करके असत्यमार्ग और सारे विजाति तत्त्वों से अलग हो जाओ।
बोली
हमारी पूर्व की, हमें लखै नहिं
कोय।
हमको
तो सोई लखै, जो धुर पूरब का
होय॥
समंदर
लागी आगि,
नदियाँ जलि कोइला भई।
देखि
कबीरा जागि, मंछी रूषाँ चढ़ि गई।
अर्थ व्याख्या: कबीरदास कहते
हैं कि विषया-सक्त अंतःकरण रूपी सागर में ज्ञान-विरह की आग लग गई,
फलतः विषय वासनाओं का संवहन करने वाली नदी रूपी इंद्रियाँ जलकर नष्ट
हो गईं। कबीर ने जागृत होकर देखा कि जीवात्मा रूपी मछली सहस्रार चक्र के वृक्ष पर
चढ़ गई है।
हंसा
तू तो सबल था, हलुकी अपनी चाल।
रंग
कुरंगे रंगिया, तैं किया और लगवार॥
अर्थ व्याख्या: हे चेतन! तू
तो ज्ञान से अत्यंत ठोस, महान शक्तिशाली
था और है। परंतु अपने बुरे आचरणों से हलका हो गया है। तू विषय-वासनाओं और मन:
कल्पनाओं के रंग में रंग गया है। तू स्वतंत्र सम्राट होते हुए अपने ऊपर दूसरा
मालिक मान रखा है।
कबीर
भरम न भाजिया, बहुबिधि धरिया भेष।
साँई
के परचावते, अंतर रहि गइ रेष॥
अर्थ व्याख्या: सद्गुरु कहते
हैं कि लोग नाना सम्प्रदायों में भक्त तथा साधुओं के नाना वेष धारण कर लेते हैं और
उनके कर्मकांड तथा वाणी-जाल में उलझ जाते हैं, परंतु उनके मन की भ्रांति नहीं मिटती। गुरु और शिष्य परस्पर ब्रहम का
परिचय करते-कराते हुए घोटाले में रह जाते हैं और उनके मन में किसी-न-किसी रूप में
संसार की वासना शेष रह जाती है।
जाके जिभ्या बन्द नहिं, हृदया नाहीं साँच।
ताके संग न लागिये, घाले बटिया माँझ॥
अर्थ व्याख्या: जिसकी वाणी में संयम नहीं है और हृदय में सच्चाई नहीं है, उसका साथ मत करो। वह बीच रास्ते में ही तुम्हें छोड़ देगा। अर्थात तुम्हें लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकता।मन कहै कब जाईये, चित्त कहै कब जाव। छौ मास के हींड़ते, आध कोस पर गाँव॥ अर्थ व्याख्या: स्वर्ग,मोक्ष एवं ब्रह्म-धाम की प्रशंसा सुनकर मनुष्यों का मन कहने लगा कि हे भगवान, वहां कब पहुंचेंगे और चित्त कहने लगा कि वहां कब जाएंगे! परंतु इन मुमुक्षुओं की दशा वैसी हुई जैसे कुछ लोग छह महीने से भटकते हुए अपना गांव खोज रहे हों, जबकि वह पास में, आध ही कोस पर हो, किंतु भ्रमवश न पाते हों। ढिग बूड़ा उतरा नहीं, याहि अंदेशा मोहिं। सलिल मोह की धार में, क्या नींदरि आई तोहिं॥ अर्थ व्याख्या: कल्याण के अत्यंत सन्निकट नर-शरीर ही में जीव डूब गया, अथवा अपने पास अन्त:करण के ही संशय-समुद्र में डूब गया और पुन: उतराया नहीं। मुझे यही सोच है कि मोह की जल-धारा में तुम्हें कैसे नींद आ गई। एक-एक निरूवारिये, जो निरूवारी जाय। दोय मुख का बोलना, घना तमाचा खाय॥ अर्थ व्याख्या: सत्संग में एक-एक बात का निर्णय करो। जिसका निर्णय हो जाए उसका यथायोग्य ग्रहण या त्याग करो। जो दो-मुखी बातें करता है, वह कठोर चपत खाता है। चकोर भरोसे चन्द्र के, निगलै तप्त अंगार। कहैं कबीर डाहै नहीं, ऐसी वस्तु लगार॥ अर्थ व्याख्या: चकोर पक्षी चंद्रमा का प्रेमी होता है वह उसके प्रेमपक्ष को कभी नहीं छोड़ता। वह तप्त अंगार को भी चंद्रमा का अंश मानकर निगल जाता है चाहे उसकी जीभ एवं चोंच भले जल जाएं। लगाव ऐसी वस्तु है कि वह जलता भी नहीं।
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कबीर के दोहों को अपने जीवन में कैसे लागू करें?
- समय प्रबंधन: "रात गंवाई सोय के" से प्रेरित होकर अपने दिन की योजना बनाएं और समय को सार्थक कार्यों में लगाएं।
- नैतिकता: "संत न छाड़े संतई" की सीख को अपनाकर विपरीत परिस्थितियों में भी अपने मूल्यों को बनाए रखें।
- सामाजिक सद्भाव: "कबीरा खड़ा बाजार में" से प्रेरणा लेकर सभी के प्रति समान भाव रखें।
- सार्थक जीवन: "जब तू आया जगत में" की सीख को अपनाकर ऐसे कर्म करें जो समाज के लिए यादगार हों।
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कबीर के दोहों से संबंधित सामान्य प्रश्न
- प्रश्न: कबीर के दोहों का सबसे बड़ा संदेश क्या है?
उत्तर: कबीर के दोहे प्रेम, सादगी, आत्म-जागरूकता, और सामाजिक समरसता का संदेश देते हैं। - प्रश्न: कबीर के दोहे बच्चों के लिए कैसे उपयोगी हैं?
उत्तर: ये दोहे नैतिकता, धैर्य, और प्रेम जैसे मूल्यों को सिखाते हैं, जो बच्चों के चरित्र निर्माण में मदद करते हैं। - प्रश्न: कबीर के दोहों का संग्रह कहां मिल सकता है?
उत्तर: कबीर के दोहे किताबों, ऑनलाइन ब्लॉग्स, और X जैसे प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध हैं।
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निष्कर्ष:
कबीर के दोहे - जीवन का अमूल्य खजाना
कबीर के दोहे न केवल आध्यात्मिक ज्ञान का स्रोत हैं, बल्कि वे हमें जीवन के गहरे सबक भी सिखाते हैं। इन दोहों में छिपा प्रेम, सत्य और सादगी का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है। चाहे आप हिंदी में कबीर के दोहों का अर्थ (Kabir Ke Dohe with Meaning in Hindi) खोज रहे हों या Hinglish में उनके जीवन दर्शन को समझना चाहते हों, ये दोहे आपके मन को छू जाएंगे और आपको एक बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा देंगे। तो, आज ही कबीर के दोहों को पढ़ें, उनके अर्थ को समझें और अपने जीवन में उतारें। Share this wisdom with your friends aur apne life mein ek positive change laayein!